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मंगलवार, 1 अप्रैल 2025

आलेख : “संस्कार बेचिए, सूटकेस पाइए!”

देश संकट में है! न महंगाई से, न बेरोजगारी से, न भ्रष्टाचार से! असली खतरा आधुनिकता की उस आंधी से है, जो बेटों-बेटियों को बेलगाम बना रही है! जो पहले संयुक्त परिवार की छतरी के नीचे संस्कारों का काढ़ा पीते थे, अब स्वतंत्रता का जूस गटक रहे हैं। और नतीजा? कभी बहू घर का सत्यानाश कर रही है, कभी बेटा बेलगाम होकर बर्बादी लिख रहा है, और जब बेटी अपनी मर्ज़ी से घर से बाहर कदम निकालती है, तो सीधा सूटकेस में सनसनीखेज़ अंदाज़ में वापस आती है!

संयुक्त परिवार: जब घर का संविधान सास-ससुर तय करते थे!

संयुक्त परिवार का दौर शानदार था! एक ही घर में 12-15 लोग, 3-4 गायें और 1 बहू जो सबकी सेवा के लिए जनसेवक की तरह तत्पर रहती थी!

बेटे-बेटियाँ भी संस्कारों की किताब के पन्नों में दबे रहते थे। घर में पापा का आदेश “रात 9 बजे के बाद कोई बाहर नहीं जाएगा!” तो इसका मतलब था कि कोई बाहर नहीं जाएगा! लेकिन फिर आया खतरनाक दौर—“आधुनिकता!”

अब हाल यह है कि बेटे-बेटियाँ खुद फैसले लेने लगे हैं! बेटा देर रात बाइक पर घूम रहा है, बेटी “आज़ादी” के नाम पर आधुनिक बनने के चक्कर में परिवार से कट रही है, और बहू… अरे भई, बहू तो अब अपने हक की बात करने लगी है!

“चाय नहीं पिलाई, तो ट्रांसफर; संस्कार नहीं सिखाए, तो सूटकेस!”

अब देखिए, अगर विधायक साहब को चाय न मिले, तो अधिकारी का ट्रांसफर पक्का! लेकिन अगर घर में संस्कारों की चाय न मिले, तो पूरा परिवार ही ट्रांसफर होकर बर्बादी की तरफ चला जाता है!

आजकल की बेटियाँ जैसे ही घर से बाहर कदम निकालती हैं, तो वापस कैसे लौटेंगी, इसकी गारंटी किसी के पास नहीं! कभी वे आज़ादी की तलाश में जाती हैं और सूटकेस में बंद होकर वापस आती हैं!

मेरठ कांड: जब सूटकेस भी छोटा पड़ गया!

अब देखिए, संस्कारहीनता की सबसे ताज़ा मिसाल!

मेरठ की मुस्कान नाम की बहू पति से इतनी “आजाद” हो गई कि सीधे उसे दुनिया से ही “मुक्त” कर दिया! उसने पति सौरभ की हत्या कर दी और उसे ठिकाने लगाने के लिए सूटकेस में डालने की कोशिश की! लेकिन संस्कारों की तरह ही, सूटकेस भी छोटा पड़ गया!

अब मुस्कान को अहसास हुआ कि “संस्कार भले ही काम न आएँ, लेकिन साइज़िंग का ज्ञान जरूरी था!” फिर उसने ड्रम में सीमेंट भरकर शव छिपाने की योजना बनाई! मतलब, अब पति भी टिकाऊ नहीं रहे!

“बेटी बचाओ” से “बेटी संभालो” तक का सफर!

पहले नारा था—“बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ!” लेकिन अब नया नारा है—“बेटी संभालो, बेटा रोकों, बहू को संस्कार सिखाओ!”

आज की बेटियाँ जब घर से बाहर निकलती हैं, तो या तो उनके फैसले खुद उनके लिए कब्र बन जाते हैं, या फिर वे सूटकेस में लौटती हैं! हर दिन अखबार में कोई न कोई ऐसी खबर होती है, जिसमें किसी लड़की को बहलाकर ले जाया जाता है और फिर उसका अंजाम या तो मौत होता है, या फिर वो खुद को ठगा हुआ महसूस करती है!

“आधुनिकता की बीमारी: इलाज सिर्फ संस्कार!”

अगर संस्कार नहीं सिखाए गए, तो या तो बेटा गाड़ी के साथ उड़ जाएगा, बेटी “फ्रीडम” के नाम पर बर्बाद होगी और बहू… खैर, बहू को तो हमने मेरठ कांड में देख ही लिया!

“संस्कार बचाइए, घर को टूटने से बचाइए!”

देखिए भइया, बच्चों को पढ़ाने से पहले उन्हें संस्कारी बनाना जरूरी है! नहीं तो आज वो “स्पेस चाहिए” बोलेंगे, कल “स्वतंत्रता” माँगेंगे और परसों…!! (परसों क्या होगा, यह मेरठ केस से आप समझ ही गए होंगे!)

इसलिए संस्कार बचाइए, बहू-बेटा-बेटी को सँभालिए और परिवार को एकजुट रखिए! वरना अगली बार आपके घर की कहानी भी अखबार में हो सकती है!

लेखकः अनूप सिंह श्रीवास्तव, लाइफ़ कोच

1 टिप्पणी:

  1. भाई साहब अनूप सिंह श्रीवास्तव जी के लेख पढ़ कर हर्ष हुआ एवं ज्ञान प्राप्त हुआ श्री सिंह के लेख की प्रशंसा करता हूं ‌।

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