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रविवार, 6 अप्रैल 2025

व्यंग्यात्मक झरोखा - "समय संवाद" : मोबाइल और मोक्ष – जब वाशरूम बना योगस्थली

(हास्य और थोड़ी सी आत्मचिंतन की खुराक)
✍️ अनूप सिंह की कलम से

*एक ज़माना था…*
जब सुबह-सुबह वाशरूम जाना मतलब…  
शरीर और मन दोनों की सफ़ाई का अवसर।

घर की वो ‘एकांत’ कोठरी,  
जहाँ कोई परेशान नहीं करता था,  
जहाँ मोबाइल नहीं – मन चलता था।

कोई कहता था – *“मैं थोड़ा रिलैक्स होकर आता हूँ…”*  
और सच में वापस लौटता था…  
*थोड़ा हल्का, थोड़ा शांत, थोड़ा नया।*

लेकिन अब…  
उस शुद्ध एकांत को *मोबाइल ने घेर लिया है।*

जहाँ पहले ध्यान करते थे,  
अब वहाँ ‘रील्स’ चलती हैं।  
जहाँ मन स्थिर होता था,  
अब अंगूठा स्क्रॉल करता है।

*वो शांतिनिकेतन – जहाँ मन को शांति मिलती थी,*
अब एक *डिजिटल ध्यान केंद्र* बन चुका है।

*अब वहाँ रोज़ ‘डिजिटल ध्यान’ होता है –*
रील योग, चैट प्राणायाम और  
फिंगर-ध्यान।

वो जगह जहाँ एक बार में 10 मिनट काफी होते थे,  
अब लोग *घंटों बैठते हैं*  
और कहते हैं –  
*"थोड़ा रिलैक्स होने जा रहा हूँ..."*  
(असल में – Reel-Lax!)

जहाँ पहले आत्मा हल्की होती थी,  
अब *डाटा हैवी* हो जाता है।

*जहाँ पहले नित्य क्रिया होती थी,*  
*अब ‘नेट क्रिया’ चलती है।*

*घर का शांतिनिकेतन*,
जहाँ हम खुद से जुड़ते थे,  
अब **Wi-Fi की सबसे तेज़ coverage ज़ोन* बन चुका है।

*समापन – एक सवाल, एक दिशा*

सोचिए…  
क्या हम वाकई *रिलैक्स* हो रहे हैं,  
या बस अंगूठे को थकाते-थकाते  
*मन और मस्तिष्क को प्रदूषित* कर रहे हैं?

मोक्ष बाहर नहीं,  
*भीतर की शांति में है – उस क्षण में जब हम खुद से जुड़ते हैं।*

तो अगली बार जब आप मोबाइल लेकर  
उस ‘*शांतिनिकेतन*’ में जाएं…  
एक बार खुद से ज़रूर पूछें –  
*"क्या मैं मोबाइल देखने गया हूँ…*
*या खुद को पहचानने?"*
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*(क्रमशः – “समय-संवाद” की अगली कड़ी में पढ़ें:*  
*“Wi-Fi वक़्त: जब रिश्ते नेटवर्क में उलझे”*)

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