(हास्य और थोड़ी सी आत्मचिंतन की खुराक)
✍️ अनूप सिंह की कलम से
*एक ज़माना था…*
जब सुबह-सुबह वाशरूम जाना मतलब…
शरीर और मन दोनों की सफ़ाई का अवसर।
घर की वो ‘एकांत’ कोठरी,
जहाँ कोई परेशान नहीं करता था,
जहाँ मोबाइल नहीं – मन चलता था।
कोई कहता था – *“मैं थोड़ा रिलैक्स होकर आता हूँ…”*
और सच में वापस लौटता था…
*थोड़ा हल्का, थोड़ा शांत, थोड़ा नया।*
लेकिन अब…
उस शुद्ध एकांत को *मोबाइल ने घेर लिया है।*
जहाँ पहले ध्यान करते थे,
अब वहाँ ‘रील्स’ चलती हैं।
जहाँ मन स्थिर होता था,
अब अंगूठा स्क्रॉल करता है।
*वो शांतिनिकेतन – जहाँ मन को शांति मिलती थी,*
अब एक *डिजिटल ध्यान केंद्र* बन चुका है।
*अब वहाँ रोज़ ‘डिजिटल ध्यान’ होता है –*
रील योग, चैट प्राणायाम और
फिंगर-ध्यान।
वो जगह जहाँ एक बार में 10 मिनट काफी होते थे,
अब लोग *घंटों बैठते हैं*
और कहते हैं –
*"थोड़ा रिलैक्स होने जा रहा हूँ..."*
(असल में – Reel-Lax!)
जहाँ पहले आत्मा हल्की होती थी,
अब *डाटा हैवी* हो जाता है।
*जहाँ पहले नित्य क्रिया होती थी,*
*अब ‘नेट क्रिया’ चलती है।*
*घर का शांतिनिकेतन*,
जहाँ हम खुद से जुड़ते थे,
अब **Wi-Fi की सबसे तेज़ coverage ज़ोन* बन चुका है।
*समापन – एक सवाल, एक दिशा*
सोचिए…
क्या हम वाकई *रिलैक्स* हो रहे हैं,
या बस अंगूठे को थकाते-थकाते
*मन और मस्तिष्क को प्रदूषित* कर रहे हैं?
मोक्ष बाहर नहीं,
*भीतर की शांति में है – उस क्षण में जब हम खुद से जुड़ते हैं।*
तो अगली बार जब आप मोबाइल लेकर
उस ‘*शांतिनिकेतन*’ में जाएं…
एक बार खुद से ज़रूर पूछें –
*"क्या मैं मोबाइल देखने गया हूँ…*
*या खुद को पहचानने?"*
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*(क्रमशः – “समय-संवाद” की अगली कड़ी में पढ़ें:*
*“Wi-Fi वक़्त: जब रिश्ते नेटवर्क में उलझे”*)
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