"समय-संवाद" आलेख : लेखक:अनूप सिंह...✍️
सच बताइए, आपने भी कभी-न-कभी विज्ञान को भगवान मान लिया होगा। मोबाइल चार्ज हो जाए तो मन प्रसन्न, और अगर नेटवर्क चला जाए तो पूरी आस्तिकता डगमगा जाती है! विज्ञान ने हमें कितनी सहूलियतें दी हैं – फ्रिज में रखा हुआ पिज़्ज़ा, एयरकंडीशनर में जमी हुई गर्मी, और AI में छिपी हुई इंसानियत।
पर एक बात बताइए – ये सारी सुविधाएं हैं या संवेदनाएं? हमने जीवन को इतना ‘स्मार्ट’ बना लिया है कि अब दिल की आवाज़ सुनाई ही नहीं देती। पहले ध्यान में बैठते थे, अब ‘डाउनलोडिंग’ में बैठते हैं। पहले आत्मा से बात करते थे, अब वॉट्सऐप स्टेटस से।
विज्ञान ने गति दी, गूगल मैप से लेकर जेम्स वेब टेलीस्कोप तक सब दिखा दिया। लेकिन ये नहीं बताया कि हम भाग क्यों रहे हैं और कहां जा रहे हैं?
अब देखिए, विज्ञान कहता है – "Everything is matter." और अध्यात्म कहता है – "Everything that matters is within."
कितना विरोधाभास है, है न?
हमारे ऋषि-मुनियों ने तो पहले ही चेतावनी दे दी थी – विज्ञान अगर सिर्फ जड़ सत्ता को देखेगा, तो एक दिन चेतना को खो बैठेगा। पर हम तो मस्त हैं! हमारे पास ड्रोन है, पर दृष्टि नहीं; बायोमैट्रिक है, पर भावनाएं नहीं; चंद्रयान है, पर चित्त नहीं।
हमारा जीवन अब इतना 'लोहे का हो गया है' कि कब आत्मा कबाड़ में चली गई, पता ही नहीं चला।
आप ही सोचिए, विज्ञान ने हमें क्या-क्या नहीं दिया –
पंखा दिया, मगर सुकून नहीं;
दवाई दी, मगर चैन नहीं;
फॉलोअर्स दिए, पर फॉलो करने लायक विचार नहीं।
अरे भाई! विज्ञान से शरीर का इलाज हो सकता है, पर आत्मा का? नहीं। आत्मा तो वहीं टंगी है – घर के उस कोने में जहां आपके पुरखों की पोथियां धूल खा रही हैं।
अब कोई कहेगा – “अरे, हम तो विज्ञान में विश्वास करते हैं।”
बिलकुल कीजिए! विज्ञान पर भरोसा रखिए, पर अपना GPS अध्यात्म से कनेक्ट कीजिए।
क्योंकि विज्ञान बताएगा कि आप कहां हैं,
लेकिन अध्यात्म बताएगा कि क्यों हैं।
अब सुनीता विलियम्स को ही ले लीजिए। विज्ञान ने उन्हें अंतरिक्ष में पहुंचा दिया, लेकिन जब यान में खराबी आई, तो उन्हें 9 महीने उसी अंतरिक्ष में बिताने पड़े – उतने ही दिन, जितने दिन एक बच्चा अपनी मां के गर्भ में रहता है। उस असीम शून्यता में, जहां कोई “नेटवर्क टॉवर” नहीं था, वहां उन्हें सहारा मिला – अध्यात्म का। उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीमद्भागवत के अध्यायों में डुबकी लगाई और पाया कि जब सब कुछ बाहर से टूट रहा हो, तो भीतर की रोशनी ही जीवन को जोड़ती है। उन्होंने खुद कहा –
"जब पृथ्वी से करोड़ों किलोमीटर दूर चारों ओर शून्यता थी, तब मेरी आत्मा ने मुझसे बात की, और उस संवाद का माध्यम बना हमारा अध्यात्म।"
सोचिए, जहां ऑक्सीजन नहीं थी, वहां भी गीता की श्वासें थीं!
कुल मिलाकर बात इतनी सी है –
विज्ञान हमें मंगल ग्रह पर पहुंचा सकता है,
पर अगर हम भीतर के चंद्र को शांत न कर सकें, तो बाहर का चंद्रयान क्या करेगा?
इसलिए हे बंधुओ, विज्ञान को ‘गति’ रहने दो और अध्यात्म को ‘दिशा’।
वरना रॉकेट उड़ जाएगा, और आप नीचे ही रह जाएंगे – फोन की स्क्रीन पर, लाइक्स गिनते हुए।
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