”भारत में बेरोज़गारी का त्रिकोण: काम है आदमी नहीं, आदमी हैं तो काम नहीं, अगर काम दो तो आदमी काम का नहीं”
भारत में काम और आदमी का रिश्ता वैसा ही है, जैसा आलू और समोसे का—एक के बिना दूसरा अधूरा! लेकिन दिक्कत यह है कि यहाँ काम के लिए आदमी नहीं मिलते, आदमी के लिए काम नहीं मिलता, और अगर काम पर रख भी लिया तो वह किसी काम का नहीं निकलता! अब इसे राष्ट्रीय समस्या कहें या आलसीपन का महोत्सव, बात तो कड़वी ही है, लेकिन आइए, इसे समझते हैं!
काम के लिए आदमी नहीं: "जॉब चाहिए, लेकिन मेहनत नहीं!"
आजकल नौकरी चाहिए, लेकिन ऐसी जिसमें "वर्क फ्रॉम होम" हो, सैलरी 50,000 से कम न हो, और काम? बस, "माइंड यूज करना" हो! ऑफिस जाए बिना तनख्वाह मिल जाए, ऐसा जॉब चाहिए।
फैक्ट्रियों में "वर्कर चाहिए" के पोस्टर लगे हैं, लेकिन बेरोजगार युवक मोबाइल स्क्रॉल करते हुए कहते हैं— "इतनी मेहनत वाला काम कौन करेगा भाई!" उधर कंपनियाँ नौकरियों की पोस्ट डाल रही हैं, और इधर बेरोजगार युवक सोच रहे हैं,* *"ऐसी नौकरी मिले, जिसमें काम करने की कोई अनिवार्यता न हो!"
अब जब काम करने को तैयार ही नहीं, तो बेरोजगारी का रोना रोने का क्या फायदा?
आदमी के लिए काम नहीं, "डिग्री भारी, दिमाग खाली!"
भारत में इंजीनियरिंग और एमबीए करना वैसे ही ज़रूरी है, जैसे शादी में हलवाई रखना! लेकिन पढ़ाई के बाद नौकरी की जब बारी आती है, तो पता चलता है कि "काम का ज्ञान जीरो, लेकिन उम्मीदें हीरो!"
कोई एमबीए करने के बाद गोलगप्पे बेच रहा है, तो कोई बी.टेक करने के बाद जोमैटो की डिलीवरी कर रहा है। अब पढ़ाई ऐसी कि नौकरी की जरूरत पड़े ही नहीं! उधर सरकारी दफ्तरों में योग्यता नहीं, "जुगाड़" चलता है। नौकरी पाने के लिए टैलेंट नहीं, "फूफा जी" का आशीर्वाद चाहिए।
"काम पर रखे आदमी किसी काम के नहीं: "आफिस आते हैं, काम करने नहीं!"
ऑफिस जाने का असली मकसद क्या होता है? "वर्क लाइफ बैलेंस" बनाना—यानि लाइफ पूरी तरह आराम में और वर्क पूरी तरह कैंसल! सरकारी दफ्तरों में फाइलें इतनी धीरे चलती हैं कि अगर कछुआ भी होता, तो बोर हो जाता!
मैनेजर पूछे—"भाई, प्रोजेक्ट कहां तक पहुँचा?"
तो कर्मचारी जवाब दे—"बस, सर, विचार चल रहा है!"
काम करने का टाइम कितना? "सुबह चाय का ब्रेक 11 बजे, फिर लंच, फिर वॉक, फिर थोड़ी मीटिंग और फिर घर!"
सरकारी नौकरी मतलब "सैलरी आराम की, काम घूस का!"
भारत दुनिया का इकलौता देश है जहाँ सरकारी कर्मचारियों को "काम न करने की सैलरी और काम करने की रिश्वत" दोनों मिलती हैं। यहाँ सरकारी बाबू को अगर कोई फाइल बढ़ानी है, तो उसका मिनिमम चार्ज होता है।
किसी ने पूछा "सर, मेरा काम कब तक होगा?"
सरकारी बाबू बोले: "देखो भाई, सरकारी घड़ी में सिर्फ डेट बदलता है, टाइम नहीं!"
अगर आप किसी सरकारी कर्मचारी से पूछ लें—"सर, यह काम फ्री में कर सकते हैं?"
तो जवाब मिलेगा—"फ्री में तो भगवान भी नहीं मिलता!" शमशान में मुर्दा फूंकने के लिए भी लकड़ी की जरूरत पड़ती है।
"काम करने की नीयत भी होनी चाहिए!"
*भारत में काम खोजने वाले लोग भी काम से बच रहे हैं, और नौकरी पर लगे लोग भी काम करने से बच रहे हैं। जो ऑफिस जाता है, वो चाहता है कि "किसी और को अपना काम सौंप दूँ!" और जो बेरोजगार है, वो चाहता है कि "ऐसी नौकरी मिले, जिसमें कुछ करना ही न पड़े!"*
अब इस देश में नौकरी भी है, बेरोजगार भी, लेकिन "काम करने वाले" लोग विलुप्त होते जा रहे हैं। कुल मिलाकर, भारत में काम और आदमी का रिश्ता बिल्कुल शादी जैसा हो गया है—नाम के लिए ज़रूरी, लेकिन निभाने की इच्छा किसी की नहीं!
अनूप सिंह
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