नई दिल्ली।सुप्रीम कोर्ट ने 2018 एशियन रिसरफेसिंग फैसला रद्द कर दिया। उक्त फैसले में हाईकोर्ट द्वारा नागरिक और आपराधिक मामलों में सुनवाई पर रोक लगाने वाले अंतरिम आदेशों को आदेश की तारीख से छह महीने के बाद स्वचालित रूप से समाप्त कर दिया जाएगा, जब तक कि हाईकोर्ट द्वारा स्पष्ट रूप से बढ़ाया गया।
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस अभय एस ओक, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस मनोज मिश्रा की पांच-जजों की पीठ द्वारा नवीनतम फैसला, पहले के फैसले को रद्द करते हुए दिया गया।जस्टिस ओक ने फैसला पढ़ते हुए कहा कि पीठ एशियन रिसर्फेसिंग के निर्देशों से सहमत नहीं है। न्यायालय ने कहा, “संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए यह निर्देश जारी नहीं किया जा सकता कि हाईकोर्ट द्वारा पारित सभी अंतरिम आदेश समय बीतने पर स्वचालित रूप से समाप्त हो जाएंगे।5-जजों की पीठ ने यह भी कहा कि संवैधानिक अदालतों को किसी भी अन्य अदालतों के समक्ष लंबित मामलों के लिए समयबद्ध कार्यक्रम निर्धारित करने से बचना चाहिए। हाईकोर्ट सहित प्रत्येक अदालत में मामलों के लंबित होने का पैटर्न अलग-अलग है और कुछ मामलों के लिए आउट-ऑफ़-टर्न प्राथमिकता देना संबंधित जज पर छोड़ देना सबसे अच्छा है, जो अदालत की जमीनी स्थिति से अवगत है।जस्टिस ओक ने कहा कि फैसले में संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियों के प्रयोग पर कुछ दिशानिर्देश हैं। जस्टिस मनोज मिश्रा ने सहमति वाला फैसला लिखा। पांच-जजों की पीठ ने 13 दिसंबर को अपना फैसला सुरक्षित रखने से पहले पिछले साल एशियन रिसर्फेसिंग ऑफ रोड एजेंसी बनाम केंद्रीय जांच ब्यूरो में मार्च 2018 के फैसले के खिलाफ संदर्भ पर सुनवाई की थी।यह इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील से उपजा था, जिसने ‘स्वचालित स्थगन अवकाश नियम और सुप्रीम कोर्ट के विचार के लिए कानून के दस प्रश्न तैयार करने पर संदेह जताया था।तर्क और अवलोकन सीजेआई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पांच-जजों की पीठ ने स्थगन आदेशों के स्वत: निरस्त होने से उत्पन्न होने वाले दो महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रकाश डाला। सबसे पहले, उन्होंने कहा कि यह तंत्र वादियों की परिस्थितियों या आचरण पर विचार किए बिना उन पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।दूसरा, उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि स्थगन आदेश को हटाना न्यायिक कार्य है, प्रशासनिक नहीं, इसलिए न्यायिक विवेक के विचारशील अनुप्रयोग की आवश्यकता है।
हाईकोर्ट बार एसोसिएशन, इलाहाबाद, जिसने इलाहाबाद हाईकोर्ट के समक्ष मामले में हस्तक्षेप किया था, का प्रतिनिधित्व कर रहे सीनियर एडवोकेट राकेश द्विवेदी ने स्थगन आदेशों के स्वत: निरस्त होने के खिलाफ तर्क दिया।
उन्होंने संवैधानिक ढांचे, विशेष रूप से अनुच्छेद 226, जो हाईकोर्ट को रिट जारी करने का अधिकार देता है, उसके साथ संभावित हस्तक्षेप के बारे में चिंता जताई। सीनियर वकील ने विभिन्न प्रकार के मामलों के लिए सूक्ष्म दृष्टिकोण की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए विस्तार पर विचार करने के लिए विशेष पीठों के निर्माण का सुझाव दिया।
इसी तरह,सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने इस बात पर जोर दिया कि हाईकोर्ट के न्यायिक विवेक को व्यापक निर्देश द्वारा कम नहीं किया जाना चाहिए। कानून अधिकारी ने स्थगन आदेशों की अवधि तय करने में अदालतों को अपने विवेक को बनाए रखने की आवश्यकता पर जोर दिया, ऐसे उदाहरणों पर प्रकाश डाला जहां स्वचालित अवकाश निर्देशों के कारण स्थगन आदेश जारी होने के छह महीने बाद सुनवाई फिर से शुरू नहीं करने पर न्यायाधीशों के खिलाफ अवमानना के मामले सामने आए।कानूनी दलीलें 2018 के फैसले के व्यापक निहितार्थों पर भी प्रकाश डालती हैं। सीनियर एडवोकेट विजय हंसारिया और एडवोकेट अमित पई ने न्यायिक विवेक के क्षरण और मनमाने परिणामों की संभावना के बारे में चिंता व्यक्त की।उन्होंने न्याय और निष्पक्ष निर्णय के बुनियादी सिद्धांतों के साथ त्वरित सुनवाई की अनिवार्यता को संतुलित करने की आवश्यकता पर जोर दिया।
केस टाइटल :- हाई कोर्ट बार एसोसिएशन इलाहाबाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य।
आपराधिक अपील नंबर 3589/2023
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