बचपन – जीवन की वह मधुर बेला, जिसमें न चिंता होती है, न भय। वह बाल मन जो रेत के घरौंदों में महल ढूँढ लेता है, गुड्डे-गुड़ियों की शादी में पूरी बारात बसा लेता है, तितलियों के संग उड़ान भरता है और अपनी कल्पनाओं में पूरा ब्रह्मांड रच डालता है। पर आज के इस तथाकथित विकसित समाज में उस निश्छल बचपन की सांसें भी नापी जाने लगी हैं।
हम जिस युग में जी रहे हैं, वहाँ की विडंबना यह है कि हम आधुनिकता की उस अंधी दौड़ में बेतहाशा दौड़े चले जा रहे हैं, जहाँ न कोई दिशा है, न कोई संवेदना। पहले जहाँ बच्चे माँ की ममता भरी गोद में सुकून पाते थे, वहीं आज मोबाइल की स्क्रीन और टीवी के चमचमाते किरदारों में अपनी पहचान खोजते हैं।
कभी गाँव की गलियों में बच्चों के ठहाके गूंजते थे – “पकड़म-पकड़ाई” और “छुपन-छुपाई” जैसे खेलों में दिन कब बीत जाता था, पता न चलता। आज वही बच्चा किसी कोने में बैठा स्पाइडरमैन की तरह ताकत की नहीं, डोरेमोन की जेब से निकलने वाले जुगाड़ों की आशा करता है।
उनके नन्हे कंधों पर बस्ते का भार नहीं, अपेक्षाओं की गठरी लदी है। माता-पिता चाहते हैं कि उनका बच्चा हर क्षेत्र में अव्वल हो – पढ़ाई में प्रथम, खेल में निपुण, नृत्य में चपल और अभिनय में पारंगत। वह बच्चा, जो अभी ठीक से अपने जूते के फीते भी नहीं बाँध पाता, उसे भविष्य की दौड़ में सबसे आगे दौड़ाया जा रहा है।
और रही सही कसर पूरी कर देती है यह दिखावटी सभ्यता। जहां “माँ के हाथ का बना खाना” अब बच्चों को पुराना और “बर्गर-पिज़्ज़ा” आधुनिकता की पहचान लगता है। जहाँ एक ओर घरों में रिश्तों की मिठास कम होती जा रही है, वहीं दूसरी ओर बच्चों में तथाकथित "मॉर्डन रिलेशनशिप" के बीज अंकुरित हो रहे हैं।
भाई-बहन की पवित्र भावना अब शर्म की बात समझी जाती है और गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड का संबोधन सामान्य सा प्रतीत होता है। स्कूलों की कक्षाओं में अब विद्या का दीप जलता नहीं, बल्कि मोबाइल की नीली रौशनी से बच्चों की आँखें चौंधियाने लगी हैं।
ये नौनिहाल अब न कागज़ की नाव बहाते हैं, न रेत पर नाम लिख कर उसे लहरों से मिटाते हैं। उनकी कल्पनाएँ अब स्वयं की नहीं होतीं, बल्कि इंटरनेट पर देखी वीडियो का प्रतिबिंब होती हैं। और सबसे दुखद पक्ष यह कि वे न अपनी मातृभाषा में सहज हैं, न विदेशी भाषा में दक्ष।
शायद आज का बच्चा सच में बच्चा नहीं रहा। वह एक प्रयोगशाला का नमूना बन गया है – समाज का, शिक्षा व्यवस्था का, मनोरंजन उद्योग का, और सबसे अधिक, माता-पिता की अधूरी इच्छाओं का।
प्रश्न यह नहीं कि बदलाव आया है, बल्कि प्रश्न यह है कि क्या हमने अपने भविष्य के कर्णधारों से उनका वर्तमान छीन लिया है? क्या हम उन्हें केवल एक मशीन बनाना चाहते हैं, जिसमें भावनाओं का कोई स्थान न हो?
हमें सोचना होगा – यह किस दिशा में जा रहा है समाज? क्या हम वाकई तरक्की कर रहे हैं या बस खोखली इमारत खड़ी कर रहे हैं, जिसके नींव में बचपन की मासूमियत कुचली जा रही है?
जब तक हम इस अंधी दौड़ को दिशा नहीं देंगे, तब तक न तो बच्चे सुरक्षित होंगे, न संस्कार। बचपन कोई उम्र नहीं, बल्कि जीवन का आधार है। यदि वह ही डगमगाएगा, तो आने वाली पीढ़ियाँ किस मिट्टी से बनेगीं?
जिस समाज में बच्चे हँसना भूल जाएँ, वहाँ सभ्यता रोती है। आधुनिकता की चकाचौंध में अगर मासूमियत ही बुझ जाए, तो यह प्रगति नहीं, पतन है।
हमें इस दौड़ को थामना होगा। बच्चों को फिर से रेत, मिट्टी, धूप और रिश्तों की घुली मिट्टी में लौटाना होगा। तभी फिर से गूंजेगी वो आवाज़ – “चलो खेलते हैं… माँ कहती है सूरज डूबने से पहले घर आ जाना।”
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