आलेख: अनूप सिंह, संरक्षक दैनिक जनजागरण की कलम से...✍️
भारतीय लोकतंत्र ने बीते दशकों में अनेक प्रयोग देखे – सामाजिक न्याय के नारों से लेकर समावेशी विकास के वादों तक। परंतु इन वादों के पीछे छिपी एक चुप्पी, एक संकीर्ण प्रवृत्ति बार-बार उभरती रही – परिवारवाद और वंशवाद का फैलता हुआ जाल, जो लोकतंत्र की आत्मा को अंदर से खोखला करता रहा।
लोकतंत्र की सबसे बड़ी शक्ति होती है – जनता की भागीदारी, विचारों की विविधता और योग्यता की मान्यता। लेकिन जब राजनीति का केंद्र एक परिवार, एक वंश, या एक जाति विशेष बन जाए, तब यह शक्ति शोषण का माध्यम बन जाती है।
जनता के नाम पर जाति और धर्म की बंदरबांट
पिछड़े, दलित, अगड़े, अल्पसंख्यक – इन सभी समूहों की पीड़ा और विकास की आवश्यकता को अक्सर केवल राजनीतिक औजार बना दिया गया है। सच्ची सेवा के स्थान पर केवल सत्ता प्राप्ति का जरिया।
जनता को झूठे वादों, भावनात्मक भाषणों और जातीय समीकरणों में उलझाकर राजनीति केवल एक लक्ष्य साधती रही – कुर्सी।
कुर्सी के लिए उस धर्म, उस वर्ग, उस जाति का सहारा लिया गया जिसे अपने ही अधिकारों का पूरा ज्ञान नहीं था। परिणामस्वरूप, राष्ट्रहित का वह स्वर जो संविधान में गूंजता है, वह चुनावी नारों के शोर में दब जाता है।
जब समाजवाद, सामंतवाद में बदल जाए
समाज के हर तबके को समान अवसर देना एक लोकतांत्रिक आदर्श है, पर जब एक ही परिवार, एक ही खून की वंशावली हर पद, हर मंच, हर अवसर पर काबिज हो जाए, तब यह जनतंत्र नहीं, जनवंचना बन जाती है।
लोकसभा, विधानसभा, जिला पंचायत, विश्वविद्यालय से लेकर सहकारी संस्थाओं तक – हर स्थान पर अगर केवल संबंधियों और खास लोगों की नियुक्ति हो, तो यह व्यवस्था नहीं, परिवार विशेष का निजी प्रतिष्ठान बन जाता है।
यह प्रवृत्ति न केवल अन्य योग्य नागरिकों के अधिकारों का अपमान है, बल्कि देश की लोकतांत्रिक नींव के लिए भी गंभीर संकट है।
जब पद नहीं, राष्ट्र सर्वोपरि होना चाहिए
राजनीति का उद्देश्य केवल सत्ता नहीं, राष्ट्र निर्माण होना चाहिए। यदि कोई राजनीतिक दल, संगठन या नेता जाति, धर्म, समुदाय या क्षेत्रीय समीकरणों के आधार पर निर्णय लेता है, और वह निर्णय राष्ट्रहित के विपरीत होता है, तो वह केवल नैतिक अपराध ही नहीं, लोकतांत्रिक विश्वासघात भी है।
सत्ता प्राप्ति राष्ट्रहित से बड़ी नहीं हो सकती।
यदि कुर्सी पाने के लिए संविधान के मूल्यों, सामाजिक समरसता और जनतांत्रिक संस्थाओं की मर्यादा को ही कुर्बान करना पड़े – तो ऐसी सत्ता, राष्ट्र की आत्मा को ही दांव पर लगा देती है।
क्या विकल्प है?
राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे अपने सभी निर्णय राष्ट्रहित में लें –
चाहे वह उम्मीदवार का चयन हो,
नीतियों का निर्धारण हो,
या फिर सत्ता में साझेदारी की बात।
विचारधारा, सिद्धांत और नीति कुर्सी से ऊपर होनी चाहिए। जाति से ऊपर, धर्म से ऊपर, और परिवार से तो हर हाल में ऊपर।
सत्ता मिलती है तो अच्छा, नहीं मिलती तो और भी अच्छा – पर राष्ट्र को कभी हारने नहीं देना चाहिए।
निष्कर्ष: राष्ट्रहित – हर निर्णय का पहला मापदंड हो।
भारतीय राजनीति को अब पुनः उस दिशा में लौटना होगा जहाँ राजनीति केवल चुनाव जीतने का माध्यम नहीं, राष्ट्र निर्माण का मंच बने।
हर निर्णय में यह स्पष्ट दिखना चाहिए कि यह देश के लिए है, जनता के लिए है, न कि किसी व्यक्ति, वंश या जाति विशेष के लिए।
लोकतंत्र तब ही जीवित रहेगा, जब उसमें सबकी भागीदारी हो – न कि कुछ विशेषों की बपौती।
आज समय की मांग है –
*राजनीति में परिवार नहीं, विचार जीते। जाति नहीं, योग्यता उभरे। धर्म नहीं, राष्ट्र सर्वोपरि हो।*
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