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गुरुवार, 1 मई 2025

मजदूर की योजनाएं: कागजों में राजा, ज़मीन पर फ़क़ीर

मजदूर दिवस के अवसर पर विशेष आलेख: अनूप सिंह, संरक्षक, दैनिक जनजागरण न्यूज़ की कलम से....

आज मजदूर दिवस है।
देशभर में बधाइयों की बरसात हो रही है। भाषण, पोस्टर, मोमबत्तियाँ, माला, और कुछ जगहों पर एक टाइम की मिठाई भी।
पर असली सवाल यही है –
“मजदूर को इस सबका क्या मिला?”

*योजनाएं कागज़ पर – ज़िंदगी खालिस ईंट-गारा पर*

सरकार कहती है, मजदूर के लिए इतने कानून बना दिए कि अब उसे तकलीफ में होना नहीं चाहिए।
लेकिन जब मजदूर खुद अपना ई-श्रम कार्ड बनवाने जाता है,
तो 2 दिन की दिहाड़ी तो पोर्टल न खुलने में ही चली जाती है।
तीसरे दिन पता चलता है – “भाई, आधार लिंक नहीं है।”
चौथे दिन – “बायोमैट्रिक गड़बड़ है।”
और पांचवें दिन – “फॉर्म भरने में गलती है, एक दलाल को पकड़ लो, वही करवा देगा।”

हाँ, वही दलाल जो श्रम विभाग के बाहर, अंदर से ज्यादा सक्रिय रहता है।

*फैक्ट चेक करिए – बिल्डिंग में मजदूर है, पहचान नहीं*

कभी किसी निर्माण स्थल पर जाकर देखिए –
सैकड़ों मजदूर सिर पर टोकरियाँ लिए ईंट, रेती, सीमेंट उठाए पसीने में तरबतर होंगे।
पर उनके पास ना आईडी कार्ड होगा, ना रजिस्ट्रेशन, ना मेडिकल सुविधा, ना बीमा।

ठेकेदार बोलेगा – “हमने लिस्ट दे दी थी सर।”
श्रम विभाग बोलेगा – “हमने पोर्टल खोल दिया था।”
और मजदूर बोलेगा – “हमें तो कोई बताने ही नहीं आया।”

यह तिकड़ी आज भी मज़दूर के हक को “कौन पहले बेशर्म बने” प्रतियोगिता में बदल चुकी है।

दलालों का डिजिटल युग – सिस्टम का नया स्थायी कर्मचारी

श्रम विभाग का पोर्टल क्या है, एक आम मजदूर नहीं जानता।
पर वह जानता है – “वो  ...? .. जी ( ...?...यहां नाम भर लीजिए) हैं ना, जो 500 रुपए में कार्ड बनवा देंगे।”
इस देश में मजदूर सरकारी सिस्टम को नहीं पहचानता, पर दलाल को पहचानता है।
क्योंकि सरकारी दरवाज़ा उसे देखकर अपने आप बंद हो जाता है,
और दलाल उसे देखकर अपनी जेब खोल देता है – वो भी मजदूर की जेब से!

*संगठन और शोषण – दोनों साथ चलते हैं*

मजदूर असंगठित क्षेत्र का हिस्सा है,
लेकिन उसके नाम पर संगठन, महासंघ, यूनियन, बोर्ड, परिषद, महासभा, महामंडल – सब चालू हैं।
सबके पास फ़ॉर्म हैं, सदस्यता शुल्क है, मोहर है।
लेकिन जब मजदूर को उसकी बेटी की पढ़ाई के लिए मदद चाहिए,
या बीमार पत्नी के इलाज का खर्च चाहिए –
तब सब “फाइल आगे भेजी है” कहकर एक-एक कर के हाथ खड़े कर देते हैं।

जागो, मजदूर जागो – वरना योजना बनती रहेगी, ज़िंदगी मिटती रहेगी

अब समय है कि मजदूर खुद उठे।
वह जागे, पूछे, सीखे, लड़ना सीखे – और सबसे पहले जानना सीखे कि उसके हक क्या हैं।
मजदूर के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने के लिए कोई रथ नहीं आएगा,
बल्कि ‘भागीरथ’ प्रयास खुद मजदूरों और जागरूक समाज को करना होगा।

अंत में फिर वही – कागज़ों में मजदूर राजा है, पर ज़मीनी हकीकत में फ़क़ीर

सरकारी योजनाओं में मजदूर की सुविधा जन्म से मरण तक है।
पर जब वह ज़मीन पर देखता है,
तो उसे बस दो चीज़ें मिलती हैं – एक कड़ी धूप और दूसरा रसीद कटवाने का सुझाव।

मजदूर दिवस पर इतना जरूर कहिए –
कि अगली बार सिर्फ बधाई मत दीजिए,
बल्कि सवाल पूछिए, सिस्टम को झकझोरिए,
और मजदूर की हकीकत को आईने की तरह सामने रखिए।
मजदूर दिवस की सच्ची शुभकामनाएं –
उन हाथों को, जिनके सहारे देश खड़ा है,
पर जिनके लिए कोई खड़ा नहीं होता।

लेखक: अनूप सिंह
(जो चाहता है कि मजदूर सिर्फ ईंट न उठाए, अपने अधिकार भी उठाए)

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