🔘 शिशु वाटिका में परशुराम जयंती पर श्रद्धा, प्रेरणा और संस्कृति का अद्भुत संगम
जनजागरण डेस्क, लखीमपुर। सूर्य की स्वर्णिम किरणों से आलोकित प्रांगण, बाल मनों की जिज्ञासा से भरा वातावरण, और संतों की परंपरा से जुड़े संस्कार, ऐसा दृश्य था विद्या भारती के सनातन धर्म सरस्वती शिशु वाटिका विद्यालय का, जहाँ वन्दना सभा के पावन अवसर पर भगवान परशुराम जयंती श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाई गई।
कार्यक्रम का शुभारंभ विद्यालय की संचालिका हीरा सिंह द्वारा भगवान परशुराम के चित्र के समक्ष दीप प्रज्ज्वलन और पुष्पार्चन से हुआ। जैसे ही दीप की लौ प्रज्वलित हुई, वातावरण में भक्ति और ऊर्जा का संचार हो गया। उसके बाद नन्हे-मुन्ने भैया-बहनों ने नयन झुकाकर, कर जोड़कर, भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। उनकी मासूम भंगिमा में संस्कृति की जड़ें स्पष्ट झलक रही थीं। संचालिका श्रीमती सिंह ने सरल और प्रेरणादायक शब्दों में बच्चों को बताया कि परशुराम जयंती केवल एक पर्व नहीं, अपितु आत्मबल, धर्मनिष्ठा और सच्चे कर्तव्य का सजीव उदाहरण है। भगवान परशुराम, जो भगवान विष्णु के छठे अवतार के रूप में पूजे जाते हैं, शक्ति और संयम के अद्वितीय प्रतीक हैं। यह पर्व वैशाख शुक्ल तृतीया, जिसे अक्षय तृतीया कहा जाता है, को मनाया जाता है, एक ऐसा दिन जो शुभता, पुण्य और अक्षय फल का द्योतक है। कार्यक्रम की संयोजिका रमा मिश्रा ने अत्यंत मार्मिक शैली में भगवान परशुराम के जीवन की प्रेरक घटनाओं को साझा किया। उन्होंने बताया कि ऋषि जमदग्नि और माता रेणुका के यह पुत्र बाल्यकाल से ही तपस्वी, आज्ञाकारी और धर्मनिष्ठ रहे।
शिव भक्ति में लीन होकर उन्होंने भगवान शिव से दिव्य अस्त्र ‘परशु’ प्राप्त किया और तभी से वे 'परशुराम' कहलाए। वे अन्याय के विरुद्ध संकल्प बनकर खड़े हुए और एक आदर्श स्थापित किया कि शक्ति का उपयोग सदैव धर्म की रक्षा हेतु होना चाहिए। कार्यक्रम का समापन विद्यालय प्रांगण में गूंजते 'कल्याण मंत्र' के उच्च स्वर के साथ हुआ। वह क्षण ऐसा था मानो स्वयं भगवान परशुराम की दिव्य चेतना उपस्थित होकर बच्चों को आशीर्वाद दे रही हो। बताते चलें यह आयोजन न केवल एक पर्व था, बल्कि भावी पीढ़ी को आत्मबल, अनुशासन और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने वाला अद्वितीय प्रयास था।
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