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शुक्रवार, 11 अप्रैल 2025

ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म में संगठित नारी-शोषण: एक ऐतिहासिक, धार्मिक और सामाजिक विश्लेषण

भारतीय सभ्यता में स्त्री की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है, किन्तु इतिहास का गहन विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट होता है कि स्त्रियों की सामाजिक, और वैचारिक स्वतंत्रता पर संगठित रूप से ब्राह्मणवादी अंकुश लगाया गया। यह नियंत्रण मात्र सामाजिक नहीं था, बल्कि धार्मिक वैधता के माध्यम से उसे पवित्र और अपरिहार्य बना दिया गया। इस प्रक्रिया में ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म की केंद्रीय भूमिका रही है, जिसने स्त्री के शरीर, इच्छाओं, स्वतंत्रता और अधिकारों पर पुरुष-प्रधान धार्मिक नियंत्रण को स्थापित किया।भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति को समझने के लिए ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म की उन संरचनाओं का विश्लेषण आवश्यक है जिन्होंने स्त्री के अस्तित्व, उसकी स्वतंत्रता और सामाजिक अधिकारों को धार्मिक अनुमोदन द्वारा सीमित किया।
यह लेख स्त्री के प्रति उस ऐतिहासिक अन्याय की परतें खोलने का प्रयास करेगा, जो उसे धर्म और संस्कृति के नाम पर झेलना पड़ा। आज का यह यह विश्लेषण वैदिक काल से लेकर आधुनिक भारत तक स्त्री के प्रति ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण के ऐतिहासिक, धार्मिक और सामाजिक दमन के संस्थागत स्वरूप को उजागर करेगा।

1. वैदिक काल में स्त्री की स्थिति और ब्राह्मणवादी परिवर्तन

● प्रारंभिक वैदिक काल:

स्त्रियाँ यज्ञों में भाग लेती थीं, ऋचाएँ रचती थीं (लोपामुद्रा, घोषा, अपाला)।

उन्हें शिक्षा, विवाह की स्वतंत्रता, और सामाजिक गरिमा प्राप्त थी।

● उत्तर वैदिक और ब्राह्मणकालीन संक्रमण:

यहीं से स्त्री की स्वतंत्रता का क्षरण शुरू हुआ।

ब्राह्मण ग्रंथों में पुरुष को परम, स्त्री को अधीन बताया गया:

मनुस्मृति (5.148): "स्त्री स्वभाव से ही पापिनी है..."

मनुस्मृति (5.155): "स्त्री कभी स्वतन्त्र नहीं रह सकती — न बचपन में, न यौवन में, न वृद्धावस्था में।"

2. धार्मिक ग्रंथों में स्त्री के विरुद्ध अवधारणाएँ

● मनुस्मृति:

स्त्री को ‘भोग की वस्तु’, पुरुष की संपत्ति, और पवित्रता की कसौटी पर कसा गया।

बाल विवाह, विधवा को जीवनपर्यंत दु:खी रहना, बहुपतित्व की स्वीकृति।

● रामायण और महाभारत:

रामायण: सीता की अग्निपरीक्षा और गर्भवती सीता का वनवास — समाज द्वारा स्त्री पर संदेह की स्थायी परंपरा।

महाभारत: द्रौपदी को वस्त्रहीन किया जाना और सभा में चुप बैठे महारथी — स्त्री को 'पुरुष सत्ता' के विलास का विषय बना दिया गया।

● पुराण:

स्त्री को 'पाप का मूल', ‘मोहिनी’, ‘कामिनी’ जैसे विशेषणों से परिभाषित किया गया।

विधवा स्त्री को अमंगल का स्रोत कहा गया।

3. ब्राह्मणवादी सामाजिक संस्थाएँ और स्त्री का दमन

● विवाह:

स्त्री की सहमति को नगण्य माना गया। पिता/भ्राता/पति/पुत्र ही 'पालक' घोषित हुए।

● सती प्रथा:

स्त्री की जीवन-मूल्यहीनता का चरम उदाहरण।

ब्राह्मण पुरोहितों ने इसे धार्मिक कर्तव्य घोषित कर, विधवाओं को आग में झोंकने को 'पुण्य' कहा।

● देवदासी प्रथा:

मंदिरों में ब्राह्मणों के यौन उपभोग हेतु स्त्रियों को ‘धार्मिक सेवा’ के नाम पर नियोजित किया गया।

यह ब्राह्मणवादी धर्म और यौनिक शोषण का संगठित रूप था।

● बाल विवाह और विधवा जीवन:

छोटी बच्चियों की शादी — शारीरिक, मानसिक शोषण।

विधवा — श्वेत वस्त्र, अपवित्रता का प्रतीक, पुनर्विवाह निषेध।

4. स्त्री शिक्षा और ज्ञान का निषेध

उपनिषद काल से ही स्त्रियों को वेदाध्ययन से वंचित किया गया।

"न स्त्रीणां वेदाधिकार:" — ब्राह्मणवादी वाक्य।

शिक्षा को ब्राह्मणों की बपौती बना कर स्त्रियों को घर की चारदीवारी में कैद कर दिया गया।

5. आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक सत्ता से स्त्री का निष्कासन

● उत्तराधिकार का निषेध:

पुत्र को संपत्ति का अधिकारी, पुत्री को पराया धन कहा गया।

स्त्री के आर्थिक स्वावलंबन को धार्मिक रूप से अमान्य किया गया।

● मंदिरों और धार्मिक सत्ता से बहिष्कार:

स्त्री को ‘रजस्वला’ कहकर मंदिरों में प्रवेश वर्जित किया गया।

पुजारीत्व ब्राह्मण पुरुषों तक सीमित रहा।

6. उपनिवेशकालीन सुधार और आधुनिक पुनरुत्थान की चुनौतियाँ

● सुधार आंदोलनों की भूमिका:

19 वीं सदी के सामाजिक-सुधार आंदोलनों ने ब्राह्मणवादी स्त्री-विरोधी परंपराओं को पहली बार व्यापक चुनौती दी। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के विरुद्ध आंदोलन चलाया, जिसके परिणामस्वरूप 1829 में लॉर्ड विलियम बेंटिक के काल में सती प्रथा निषेध कानून लागू हुआ।

ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने बाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह, और स्त्री शिक्षा के पक्ष में महत्वपूर्ण कार्य किया। इन आंदोलनों ने ब्राह्मणवादी धार्मिक सत्ता को नैतिक चुनौती दी और स्त्री को एक मनुष्य के रूप में देखने की दिशा में पहला कदम उठाया।

● कानूनी सुधार:

हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम (1856)

सती निषेध अधिनियम (1829, पुनः 1987)

बाल विवाह निषेध अधिनियम (1929; संशोधित 2006)

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (1956) — जिसने बेटियों को संपत्ति में समान अधिकार दिया।

इन कानूनों ने धीरे-धीरे स्त्रियों को कानूनी संरक्षण प्रदान किया, लेकिन धार्मिक-सांस्कृतिक चेतना में ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण अब भी गहराई से मौजूद है, जो स्त्रियों की स्वतंत्रता और अधिकारों को अवांछनीय मानता है।

● आधुनिक ब्राह्मणवादी पुनरुत्थान:

आज पुनः स्त्री को 'गृहलक्ष्मी', 'संस्कार वाहिका' बना कर उसकी स्वतंत्रता सीमित करने का प्रयास किया जा रहा है। दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा ब्राह्मणवादी ‘गृहणी’ आदर्श का पुनरुत्थान किया जा रहा है, जो उनके ऐतिहासिक स्त्री विरोधी चरित्र को उजागर करता है, कभी "वेलेंटाइन डे" विरोध के नाम पर, कभी लव जिहाद के नाम पर, तो कभी अल्पसंख्यक महिलाओं की कब्र खोदकर बलात्कार करने साथ सांकेतिक बलात्कार करने के जहरीले विमर्श फैलाकर।

यह पुनरुत्थानवादी मानसिकता पुनः उसी स्त्री-विरोधी ढांचे को स्थापित करने की कोशिश है जो उसकी स्वतन्त्रता, अधिकार और निर्णय क्षमता को सीमित करता है।

अंत में मैं यही कहूंगा कि ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्थाओं ने हजारों वर्षों तक स्त्री को एक देह, सेवा का उपकरण, पराश्रित प्राणी और पुरुष-केन्द्रित नैतिकता की कसौटी पर कसा। सत्ता, धर्म, नैतिकता और परंपरा — सबका प्रयोग स्त्री की स्वतंत्रता को छीनने के लिए किया गया।

यह दमन केवल सामाजिक नहीं, बल्कि धार्मिक ग्रंथों द्वारा वैध ठहराया गया — जिससे स्त्री का दासत्व पवित्रता की आड़ में स्थायी कर दिया गया।

सती, देवदासी, नगरवधु, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, संपत्ति से वंचन, शिक्षा निषेध — ये सभी व्यवस्थाएँ ब्राह्मणवादी पुरुष सत्ता की ऐसी रचनाएँ हैं, जिन्होंने स्त्री की स्वतंत्र चेतना को कुचला।

परिवर्तन की आवश्यकता केवल कानून बनाने तक सीमित नहीं हो सकती। जब तक धर्म की व्याख्या पुरुष-प्रधान रहेगी, स्त्रियों की मुक्ति अधूरी रहेगी। अतः हमें स्त्री दृष्टिकोण से धर्म, इतिहास और संस्कृति की पुनर्व्याख्या करनी होगी।

✍️ एल0 एन0 सिंह

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