बेंगलुरू में आरएसएस की प्रतिनिधि सभा की बैठक हो रही है। आरएसएस के सौ साल होने के समय की इस बैठक के 1,480 प्रतिनिधियों और पदाधिकारियों के दिल-दिमाग का यदि मैं अनुमान लगाऊं तो सवाल होगा कि क्या नरेंद्र मोदी से इन सबका वह लगाव है, जो 2013-14 में उन्हें भाजपा का नेता तय करते वक्त था? यह गहरा-गंभीर सवाल है। मैं इसके खुलासे में नहीं जाऊंगा। इतना भर नोट करें कि परस्पर संवाद में भी एलर्जी है। अहंकार और परस्पर नफरत की वे बाते हैं, जो दिखावे की मुलाकातों तथा सत्ता के लालच से छुपी हुई हैं। असलियत परस्पर अविश्वास, भय और वह लालच है जो देश की राजनीति में सर्वत्र है। सभी समय के प्रवाह में बहते हुए हैं और सत्य से मुंह चुराते हुए।
ऐसा अटल बिहारी वाजपेयी के समय में नहीं था। वाजपेयी और संघ के सुर्दशन में तब वैचारिक मतभेद बना था लेकिन मनमुटाव नहीं था। अहंकार और ईगो का संकट नहीं था। आडवाणी, पार्टी अध्यक्ष, मंत्रियों आदि सभी के जरिए संघ आलाकमान का वाजपेयी से संवाद था तो परस्पर विचार-विमर्श भी था। फिलहाल सबका मालिक एक, और वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं जो यदि मिल लिए, यदि उन्होंने दर्शन दे दिए तो बड़ी कृपा! इसलिए जो कुर्सी पर है वही परम पूजनीय है और बाकी सब घसियारे हैं। मेहरबानियों पर जिंदा हैं। तभी संघ के प्रतिनिधियों के लिए, सौ वर्ष के मुकाम पर गौरव की बात इतनी भर है कि उनके सपनों का हिंदू राष्ट्र है, जिसमें औरंगजेब जिंदा है!इस प्रतीकात्मक बात को धर्म, जाति, क्षेत्र, समाज, राजनीति, आर्थिकी सभी पर लागू कर सकते हैं। क्या अडानी और अंबानी के मन मिले हुए हैं? क्या उद्योगपतियों में परस्पर मन से सद्भाव है क्या अफसरों की जमात पक्षपातों से पैदा खुन्नस नफरत नहीं बनाए हुए है? आखिर हर लेवल पर तो कायदे व नियम को ताक में रख निर्णय हो रहे है। अहम पदों पर नियुक्ति, प्रमोशन और रिटायर होने के बाद बंदरबांट के हर मामले में। ऐसे ही पक्ष-विपक्ष के रिश्तों में आज जैसी दुश्मनी व नफरत है क्या आजाद इतिहास में पहले कभी रही दक्षिण के पांच राज्यों तमिलनाड़ु, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश का देश की आर्थिकी में तीस प्रतिशत हिस्सा है लेकिन इनके मानस में दिल्ली की सत्ता, उत्तर भारत को लेकर मन ही मन वह नफरत है कि लोगों से बच्चे ज्यादा पैदा करने का आह्वान कर रहे हैं! सोचें, क्या एक्स्ट्रिम है। भक्त हिंदुओं में मुसलमान से ज्यादा बच्चे पैदा करने की हवाबाजी तो समझ आती है लेकिन उत्तर भारत की संख्या के मुकाबले दक्षिण में संख्या बढ़ाने के लिए मुख्यमंत्रियों का कहना क्या बताता है जाहिर है भय, हताशा और उसके परिणाम में नफरत के लक्षण चारों तरफ हैं। कोई न माने इस बात को लेकिन सत्य है कि महाराष्ट्र में गुजरात और गुजरातियों को लेकर नफरत सुलगी हुई है! ऐसे ही उत्तर पूर्व के राज्यों में नफरत के अलग-अलग भभके हैं। ऊपर से सब ठीक दिखेगा लेकिन स्थानीय बनाम बाहरी, आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी, हिंदू बनाम मुस्लिम की नफरत के ढेरों टापू बनते हुए हैं। यदि धर्म की सतह के नीचे की मनोदशा में जातियों का हिसाब लगाएं तो उत्तर प्रदेश हो या बिहार इनमें भी महाकुंभ के साझे के नीचे जातियों में परस्पर विद्वेष लगातार बढ़ते हुए हैं।इसी वजह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने वह जातिवादी राजनीति बना रखी है, जिसमें जातियों में अपने-अपने चेहरों का घमंड बढ़ता जा रहा है, भले वह लायक हो या न हो! यह सब हिंदू छाते के नीचे फिलहाल छुपा हुआ है लेकिन समय की हवा जब छाते को उड़ाएगी, जब भी विस्फोट होगा तब अचानक सब तितर-बितर हुआ मिलेगा। सवाल है ऐसा सोचना ही क्यों? इसलिए क्योंकि कौम यदि अतीत में, औरगंजेब की कब्र पर वर्तमान बनाती है तो बिखरा होने का इतिहास का लौटना चिंता तो बनाएगा!
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