वाराणसी सिधौना महापर्व डाला छठ में व्रती महिलाओं की संख्या हर साल बढ़ती चली जा रही है, जिससे इस त्योहार के क्रेज का स्तर समझ में आ रहा है। त्योहार को लेकर उत्साह और बाजारों में होने वाली भीड़ से इसके महत्व का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। सिधौना गांव के हर दूसरे घर में छठ पर्व मनाया जाता है। इस त्योहार के आने पर छह दिनों तक मांस-मछली की बिक्री व खानपान बंद करके पूरा गांव शाकाहारी हो जाता है। स्वच्छता के इस विशेष पर्व में गांव से गोमती घाट सहित गांव के हर गलियों की सफाई देखते ही बनती है। घर को साफ-सुथरा रखने के साथ ही व्रत करने वाले परिवार के लोग लहसुन प्याज तक का सेवन बंद कर देते हैं। सिधौना गांव में छठ पर्व की शुरुआत लगभग 65 वर्ष पूर्व स्व. फतेहबहादुर सिंह की पत्नी स्व. देहुति देवी ने की। वो अपने मायके गहमर में छठ की परंपरा देखकर आई थीं और उन्होंने यहां शुरू किया। इसके बाद उनकी पुत्रवधू भगवंती देवी 55 वर्षों तक इस कठिन व्रत को सकुशल सम्पन्न करती रहीं। पुत्र की कामना से शुरू इस पावन पर्व को भगवंती देवी ने कलकत्ता से शुरु करके सैदपुर स्थित गंगा नदी के पक्का घाट पर अनवरत 45 साल तक श्रद्धापूर्वक किया। शारीरिक रूप से कमजोर होने पर पिछले वर्ष उन्होंने इस पुण्य पर्व को अपनी पुत्रबधू संध्या सिंह को सौंप दिया। आज सिधौना गांव में करीब हर वर्ग की महिलाएं बड़े श्रद्ध भाव से छठ पूजन करतीं है। सिधौना के गोमती नदी घाट पर पूर्व ग्राम प्रधान कालिंदी देवी ने 25 वर्ष पूर्व छठ पूजन शुरू कराया। गांव से लेकर गोमती घाट तक साफ सफाई और पगडंडियों पर मुलायम दरी डलवाकर व्रती महिलाओं के लिए सभी सुविधाओं का प्रबंध किया था। आज भी सिधौना के गोमती घाट सहित गांव के दो अन्य जलाशयों पर बड़ी संख्या में व्रती महिलाएं इस पर्व को बड़े ही शुद्धता व पवित्रता के साथ पूर्ण करती हैं। इस दौरान गांव की सभी बहुएं अपने अपने मायके सहित शहरों से गांव लौट आती हैं। गोवर्धन पूजा के बाद ही सिधौना के हर घर से छठ गीत के मनोहर गीत सुनाई पड़ने लगते हैं। व्रती महिलायें इस कठिन चार दिवसीय पूजन के एक सप्ताह पूर्व से ही प्रसाद बनाने के लिए अनाज व चूल्हे की साफ सफाई शुरू कर देती हैं।
शनिवार, 9 नवंबर 2024
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हर दूसरे घर में होता है छठ पूजन, साढ़े 6 दशक पहले स्व. देहुति देवी ने यहां शुरू की थी मायके की परंपरा
हर दूसरे घर में होता है छठ पूजन, साढ़े 6 दशक पहले स्व. देहुति देवी ने यहां शुरू की थी मायके की परंपरा
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