आन्ध्र प्रदेश के कृष्णा जिले में कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल पर्वत पर भगवान शिव मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के रूप में विराजमान हैं। इसे दक्षिण भारत का कैलास भी कहते हैं। सनातन धर्म के अनेक ग्रन्थों में इस स्थान की महिमा बतायी गयी है। महाभारत के अनुसार श्रीशैल पर्वत पर भगवान शिव का पूजन करने से अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है। कुछ ग्रन्थों में तो यहां तक लिखा है कि श्रीशैल शिखर के दर्शन मात्र से श्रद्धालुओं के सभी प्रकार के कष्ट दूर भाग जाते हैं, उन्हें अनन्त सुखों की प्राप्ति होती है और वे जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं।पुराणों में वर्णित है कि अपने नाराज ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय को मनाने कि लिए भगवान शिव अपनी पत्नी देवी पार्वती के साथ दक्षिण भारत में पहुंचे। यहां वे क्रौंच पर्वत पर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए। “मल्लिका” माता पार्वती का नाम है जबकि भगवान शंकर को “अर्जुन” कहा जाता है। इस प्रकार यहां का ज्योतिर्लिंग मल्लिकार्जुन के नाम से जगत् में प्रसिद्ध हुआ। मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग को 12 आदि ज्योतिर्लिंगों में द्वितीय स्थान प्राप्त है। माना जाता है कि शिव और पार्वती हर त्योहार पर कार्तिकेय को देखने यहां आते हैं। यह भी मान्यता है कि भगवान शिव अमावस्या और माता पार्वती पूर्णिमा के दिन यहां आती हैं।मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिग श्रीशैल पर्वत पर बसे होने की वजह से भगवान मल्लिकार्जुन को श्रीशैलम नाम से भी जानते हैं। श्रीशैल पर्वत नल्ला-मल्ला नामक जंगल के बीचोंबीच स्थित है। नल्ला-मल्ला का अर्थ है सुन्दर और ऊंचा।यहां देवी पार्वती को भ्रामराम्बिका के रूप में पूजा जाता है। मन्दिर की दीवारों पर कई अद्भुत मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। स्कन्द पुराण के श्रीशैल काण्ड नामक अध्याय में इस मन्दिर का वर्णन मिलता है। कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने इस मन्दिर की यात्रा करने के बाद शिवनन्द लहरी की रचना की थी।
मुख्य मन्दिर के बाहर पीपल और पाकड़ का संयुक्त वृक्ष है जिसके आस-पास चबूतरा है। दक्षिण भारत के दूसरे मन्दिरों के समान यहां भी मूर्ति तक जाने का टिकट कार्यालय से लेना पड़ता है। पूजा का शुल्क टिकट भी पृथक होता है। यहां लिंग मूर्ति का स्पर्श प्राप्त होता है। मल्लिकार्जुन मन्दिर के पीछे पार्वती मन्दिर है। इन्हें मल्लिका देवी कहते हैं। सभा मण्डप में नन्दी की विशाल मूर्तिहै।
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