इतना बड़ा अवसर आया है। नवरात्रियों में शक्ति संचय के लिए शक्ति आराधन कीजिए। सूक्ष्म में देखेंगे तो जानेंगे कि जो शक्ति संक्रामक महामारी बन कर व्यापक जनहानि के उद्योग में लगी है बिलकुल वही शक्ति हमारे प्रतिरक्षा तंत्र की भी स्वामिनी है।
आराधन के लिए काल-विशेष का महत्व बताया गया है। जैसे पाञ्चरात्रादि में विष्णुरात्र,इन्द्ररात्र, ऋषिरात्र आदि। उपासना की दृष्टि से वर्ष में चार महारात्रियाँ शिवरात्रि, मोहरात्रि (जन्माष्टमी), महारात्रि (दीपावली) और कालरात्रि (होलिका-दहन) की विशेष प्रतिष्ठा है।
भारतवर्ष में शरद और बसन्त ऋतुएं सदैव से ही रोगकारी प्राणघाती रही हैं। इन दुर्गम भयानक ऋतुओं को यम के दांतों के तुल्य कहा गया है। वैसे भी इस कालखण्ड में वरूण, यम तथा रूद्र की शक्तियाँ प्रकृति में प्रबल होती हैं। हालांकि यह दोनों ऋतुएँ मुझ अप्रसिद्ध पातकी को बहुत भाती हैं।
ऋतुएँ मूलत: छ: हैं। वसंत, ग्रीष्म, पावस, वर्षा, शरद और शिशिर। ग्रीष्म ऋतु में रबी और शीत में खरीफ। रबी का गोधूम अग्नि खरीफ का भात सोम से पुष्ट होता है। अग्नि और चंद्र दोनों सूर्य से ऊर्जित होते हैं। सूर्य की ऊर्जा का धरती पर प्रकाश संश्लेषण बुध की सम्मिलित ऊर्जा से होता है।
तो वह आद्या दुर्गा जिससे पहले कुछ न था, कोई नहीं था उसकी आराधना के लिए नौ दिन ही क्यों? पहले आद्या नाम को ग्रहण करें। शास्त्र का प्रमाण है कि
‘‘देवी ह्येकाग्रे आसीत्’’ तब कहीं कुछ भी नहीं था। अतः देवी को केवल अपनी ही छाया दिखाई दी।
‘‘एतस्मिन्नेव काले तु, स्वबिम्बं पश्यति शिवा’’ इसी स्वबिम्ब (छाया) से माया बनी जिससे मानसिक शिव हुए
‘‘तद्बिम्वं तु भवेन्माया-तत्र मानसिक शिवः’’
सृष्टि रचना हेतु देवी ने इसी मानसिक शिव को अपने पति के रूप में स्वीकार करके सृष्टि रचना की।
अब बात नवरात्र की उपपत्ति की। पाणिनीय सूत्र है ‘नवानां रात्रीणां समाहार: नवरात्रं। 'नवरात्र’ अर्थात नौ विशेष रात्रियों का समूह, अर्थात् –कालविशेष। नौ की संख्या अखण्ड, अविकारी, एक रस,पूर्णब्रह्म की प्रतीक मानी गई है। नौ के पहाड़े से इस संख्या की पूर्णता को भलीभाँति समझा जा सकता है। नौ के पहाड़े की प्रत्येक संख्या का योग नौ ही होता है।
दूसरा कारण यह कि तंत्रोक्त मण्डल पर प्रभाव के लिए ब्रह्मवर्चस्वी काल का चालीसवां हिस्सा आवश्यक है। तीन सौ साठ का चालीसवां हिस्सा है नौ। अर्थात कुल चालीस नवरात्र हुए। इन चालीस में चार अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।एक वर्ष में दो अयन परिवर्तन की संधि और दो गोल परिवर्तन की संधियाँ होती है, कुल मिलाकर एक वर्ष में चार संधियाँ होती हैं,इनको ही नवरात्री के पर्व के रूप में मनाया जाता है|
1. प्रात:काल (गोल संधि) चैत्री नवरात्र
2. मध्यान्ह काल (अयन संधि) आषाढी नवरात्र
3. सांयकाल (गोल संधि) आश्विन नवरात्र
4. मध्यरात्रि (अयन संधि) पौषी नवरात्र
क्रमश: चित्रा, पूर्वाषाढा, अश्विनी और पुष्य नक्षत्रों पर आधारित चान्द्रमासों में नवरात्रि पर्व का विधान है | वैदिक ज्योतिष में नाक्षत्रीय गुणधर्म के प्रतीक प्रत्येक नक्षत्र का एक देवता कल्पित किया हुआ है | इस कल्पना के गर्भ में भी विशेष महत्व समाया हुआ है, जो कि विचार करने योग्य है|
इन चारों में भी चैत्र नवरात्र और विशेष हैं। चैत्र है 'मधु' और बैसाख है 'माधव' उधर वसंत है उमंग और फाल्गुन बीता सो हृदय को सौ सौ रसों से आप्लावित होने का समय है। और जब सनातन हृदय रसाप्लावित हुआ तो उसने आराधना का मार्ग चुना। समर्पण समर्पयामि का भाव चुना। और जगज्जननी दुर्गा का तो एक नाम भी वासन्ती है।
दुर्गोत्सव विवेक नामका एक ग्रंथ है महामहोपाध्याय शूलपाणि भट्टाचार्य का लिखा। संस्कृत में है। लिखते हैं कि ' विशेषत्वयं बोधनं नास्ति। बोधिताया बोधनासम्भवात्। वासंती नवरात्र में त्रिगुणात्मिका देवी स्वयं जाग्रत रहती हैं इसलिए बोधन की आवश्यकता ही नहीं।
अब फिर से आते हैं नौ की संख्या पर। यज्ञोपवीत में भी नौ गुण पूर्णब्रह्म के भी नौ गुण। नौ की चमत्कारिक संख्या की पूर्णता का प्रमाण देखिए कि शक्ति साधन से नौ ही गुण प्राप्त होने के अधिकारी भी बनते हैं।शम, दम, तप,शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता– इन नौ गुणों से युक्त व्यक्ति ही शक्तिशाली कहा गया है।
भगवान परशुराम में इन नौ गुणों का पूर्ण समावेश होने से ही उन्होंने पृथ्वी के समस्त राजाओं पर विजय प्राप्त की थी। रामचरित मानस में श्री रामचन्द्रजी ने परशुरामजी के इन नौ गुणों की सराहना करते हुए कहा है–‘देव एक गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें।।’
नवरात्रि के नौ दिन कई शुभ योग भी आयेंगे। जिनमें 4 सर्वार्थ सिद्धि योग, एक रवि योग और एक अमृत योग शामिल है। इनका लाभ लिया जाए।
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