जैसी सोच, वैसी कर्म। जैसा करोगे वैसा भरोगे। संस्कार- वृक्ष में कर्म- सम्भार है शाखा- प्रशाखा। प्रस्फुटित फूलों की गंध में है अच्छाई- बुराई संकेत की सही पहचान और फलों में है कृत कर्मों का परिणाम।।
मानव मस्तिष्क है एक सुपर कंप्यूटर, जिसमें संस्कार वृक्ष तो सज्जीवित किंतु जिस वातावरण में मनुष्य बढ़ता है, उसीके हिसाब से सोचता है और अधिक क्षेत्र में भ्रमित होकर कर्त्तव्य निर्धारण में असमर्थ होकर सही और गलत के मझधार में फंस जाता है।।कोई दुख भोगकर अदृष्ट नियति को स्मरण करते- करते कोसता है, तो कोई सुख भोगकर नियति को भूल जाता है। यही है संस्कार- वृक्ष से उपज संसार के विचित्र नियम, जिसकी अन्तःस्वर को कोई समझे या ना समझे-- किन्तु दोनों ही हालत में कृत कर्म के अनुसार ही परिणामी- फल उगेगी, इसमे सन्देह नहीं है।।
श्रीमद्भगवतगीता और गरुड़ पुराण में तो चित्रकल्प के माध्यम संस्कार वृक्ष से उपज परिणामात्मक कर्मफलों की विस्तारित वर्णन है, वेदोपनिषदों में भी इस तात्विक तथ्यों की झलक है; यथा--
"न किल्बिषमत्र नाधारो अस्ति
न यन्मित्रैः समममान एति।
अनूनं पात्रं निहितं न एतत्
पक्तारं पक्वः पुनरा विशाति।।"
(अथर्व० १२.३.४८।।)
इसकी भावार्थ है-- "इस कर्म- सिद्धान्त के विषय में कोई त्रुटि नहीं है, कोई कमी नहीं है, न ही किसी की सिफारिश चलती है, न मित्रों के साथ गति कर सकता है अर्थात् मित्रों का सहारा लेकर भी नहीं बच सकता। हमारा यह कर्मों का पात्र बिना किसी घटा- बढ़ी के पूर्ण भरा हुआ रखा है। पकानेवाले को पकाया पदार्थ फिर आ मिलता है। अर्थात् जो जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है।।"अब कलियुग हो तो क्या हुआ, यह कर्म- नियम सभी युगों के लिए लागू होते है। इसलिए अंधा बनकर दूसरों का पीछा करना बेवकूफी है। खुद को पहचानों और निजी प्रचेष्टा से खुद को सुधारो। इससे, संस्कार- वृक्ष से उत्पर्ण कर्मों के परिणामी फूलों तथा फलों से बुराई मिटकर, अच्छाई में संस्कारित होना निश्चित हो जाएगा।।
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