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रविवार, 3 सितंबर 2023

धार्मिक / आइए जानें ! योगमाया मंदिर, महरौली का इतिहास read more ........

 योगमाया मंदिर जिसे “जोगमाया मंदिर” के नाम से भी जाना जाता है, एक प्राचीन हिन्दू मंदिर है जो देवी योगमाया को समर्पित है। योगमाया श्री कृष्ण जी की बहन थी। ये मंदिर नई दिल्ली की महरौली में क़ुतुब परिसर के निकट स्थित है। ऐसा माना जाता है की ये महाभारत के समय के उन पांच मंदिरों में से एक है जो दिल्ली में स्थित है। यहाँ के स्थानीय पुजारी के अनुसार ये उन 27 मंदिरों में से एक है जिन्हे ग़ज़नी और बाद में ममलुको ने नष्ट कर दिया था। ये एकमात्र जीवित मंदिर है जो पूर्व-सल्तनत अवधि से अब तक उपयोग में लाया जा रहा है। राजपूत राजा हेमू ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया और खंडहरों में से वापस मंदिर में परिवर्तित कर दिया। औरंगजेब के शासनकाल के दौरान, इस मंदिर में एक आयातकार कक्ष को जोड़ा गया जो मुगलो द्वारा इस प्राचीन मंदिर को मस्जिद में परिवर्तित करने का एक असफल प्रयास रहा, बाद में इस कक्ष को देवी के वस्त्र रखने का कक्ष बना दिया गया। मंदिर के विखंडन के पश्चात इसकी मूल वास्तुकला (200-300 ईस्वी) को कभी फिर से नहीं बनाया जा सका परन्तु इस मंदिर का विनिर्माण स्थानीय निवासियों द्वारा बार बार करवाया गया। देवी योगमाया को भगवान् के छल, माया का एक स्वरूप माना जाता है। नवरात्रि उत्सव के दौरान ये मंदिर श्रद्धालुओं के बड़े जनसमूहों का स्थल है।
वर्तमान मंदिर का निर्माण 19 वीं शताब्दी में इस मंदिर के बहुत पुराने वंशजो द्वारा करवाया गया था। इस मंदिर के पास एक पानी की झील, जोहाद है जिसे “अनंगताल” कहा जाता है। राजा अनंगपाल की मृत्यु के पश्चात इसे चारो ओर से पेड़ों द्वारा ढक दिया गया। ये मंदिर दिल्ली के अंतर-विश्वास त्यौहार, “फूल वालो की वार्षिक सैर” का एक अभिन्न हिस्सा है।12 वीं शताब्दी के जैन ग्रंथो में इस मंदिर के निर्माण के पश्चात महरौली को योगिनिपुरा के नाम से वर्णित किया गया है। ऐसा माना जाता है की इस मंदिर का निर्माण पांडवो द्वारा महाभारत युद्ध की समाप्ति के पश्चात करवाया गया था। महरौली उन सात शहरों में से एक है जो दिल्ली को वर्तमान राज्य बनने में सहायता करते है। इस मंदिर को सर्वप्रथम मुग़ल सम्राट अकबर I (1806–37) के शासन काल के दौरान लाला सेठमल द्वारा करवाया गया था।ये मंदिर क़ुतुब परिसर के लोह स्तंभ से 260 गज की दुरी पर स्थित है और दिल्ली के पहले किले गढ़, लाल कोट दीवारों के भीतर है, जिनके निर्माण तोमर/तंवर राजपूत राजा अनंगपाल I ने  731 ई० में करवाया था। 11 वीं शताब्दी में राजा अनंगपाल ने इस मंदिर का विस्तार किया और लाल कोट का भी निर्माण करवाया।
इस मंदिर का निर्माण सं 1827 में बहुत सरल परन्तु समकालीन संरचना में करवाया गया जिसमे एक प्रवेश कक्ष और एक गर्भ गृह है। मंदिर की गर्भ गृह में योगमाया की मुख्य प्रतिमा है जिसका निर्माण काले पत्थर से करवाया गया है जिसे संगमरमर के 2 फुट (0.6 मी०) चौड़े और 1 फुट (0.3 मी०) गहरे कुंए में रखा गया है। ये गर्भ गृह 17 फुट (5.2 मी०) का एक वर्ग है जिसमे एक सपात छत है जिसके ऊपर एक छोटे से शिखर का निर्माण किया गया है। इस टावर के अतिरिक्त मंदिर में एक गुबंद भी है जी इसकी अन्य विशेषता है। देवी की प्रतिमा को गहने और कपड़ो से ढका गया है। समान समग्री से बने दो पंखे देवी की प्रतिमा के ऊपर वाली छत पर लटके हुए है।मंदिर को चारो ओर से घेरने वाली दीवार 400 फुट (121.9 मी०) के एक वर्ग का निर्माण करती है, जिसके चारो कोनो पर एक एक टावर है। मंदिर परिसर में कुल 22 टावर है जिनका निर्माण मंदिर के बिल्डर, सूद मल के आदेश पर किया गया था। मंदिर के फर्श का निर्माण वास्तव में लाल पत्थर से किया गया था परन्तु इसे बाद में संगमरमर में परिवर्तित कर दिया गया। गर्भगृह के ऊपर बना मुख्य टावर 42 फुट (12.8 मी०) ऊंचा है जिसके ऊपर एक तांबे से जड़ा शिख़र स्थित है।मंदिर में आने वाले भक्तो द्वारा देवी को अर्पित की गयी फूल और मिठाइयां 18 इंच के एक वर्गाकार संगमरमर से बने टेबल पर रखा जाता है जिसकी ऊँचाई 9 इंच है। ये टेबल गर्भगृह में देवी की प्रतिमा के ठीक समाने रखा गया है। घंटिया जो हिन्दू मंदिर का एक अभिन्न हिस्सा है, को देवी की पूजा के दौरान नहीं बजाया जाता है। शराब और मांस को मंदिर में अर्पित करना निषेध है और ऐसा करने वालो पार देवी अत्यन्त क्रोधित हो जाती है। भूतकाल में मंदिर परिसर में एक आकर्षक प्रदर्शनी थी (वर्तमान में एक खुले दीवार पैनल में स्थित है) जो लोहे के पिंजरे थे ये पिंजरे 8 फुट (2.4 मी०) के एक वर्ग थे जिनकी ऊँचाई 10 फुट (3.0 मी०) थी। इन पिंजरों के भीतर दो पत्थर से बने बाघ मौजूद है। मंदिर और दीवार पैनल के मध्य एक मार्ग है जिसके ऊपर सपाट छत है इस छत को लकड़ी के तख़्त से ढका गया है जिनको ईंटों और चुना पत्थर से गढ़ा गया है और जिसमे घंटियों को स्थापित किया गया है।पवित्र दुर्गा सप्तशती के 11 अध्याय अनुसार जब माँ दुर्गा जी ने शुंभ निशुंभ दैत्योंका वध कर दिया था तब देवता को वर देते माँ ने कहा
देवी ने कहा- वैवस्वत मन्वन्तर के अठ्ठाईसवे युग में दो और महा- असुर शुम्भ और निशुम्भ उत्पन्न होंगे। उस समय मैं नन्द गोप के घर से यशोदा के गर्भ उत्पन्न होकर विन्ध्याचल पर्वत पर शुम्भ और निशुम्भ का संहार करूगीं, फिर अत्यंत भंयकर रूप से पृथ्वी पर अवतीर्ण वैप्रचिति नामक दानवों का नाश द्वापर में भगवान श्रीविष्णु अपना पूर्णावतार श्रीकृष्ण के रूप में लेने वाले थे. उन्हें देवकी के गर्भ से उनकी आठवीं संतान के रूप में जन्म लेना था. इस कार्य में भगवान को कई असुरों का वध करना था.भगवान श्रीहरि ने देवी योगमाया से इस कार्य में सहायता मांगी. उन्होंने योगमाया को आदेश दिया कि वह गोकुल में नंदराय जी के घर में उनकी पत्नी के गर्भ में समा जाएं.फिर जब वह स्वयं देवकीजी की गर्भ से प्रकट होंगे तो योगमाया को यशोदाजी के गर्भ से प्रकट होना होगा. फिर उन्हें कंस को मानसिक रूप से पीड़ित करके विंध्य पर विराजमान होना होगा।भगवान ने कहा- हे देवी इस कार्य में मेरी सहायता के बाद आप पृथ्वी पर अनेक रूपों में पूजित होंगी. मेरी आराधना करने वाले भक्त आपके भिन्न-भिन्न शक्ति स्वरूपों की पूजा करेंगे. आप अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली होंगी।
योगमाया ने वैसा ही किया. देवकी के साथ-साथ यशोदाजी भी गर्भवती हुईं. जिस समय देवकीजी के गर्भ से श्रीकृष्ण का जन्म हुआ उसी समय यशोदाजी के गर्भ से योगमाया ने पुत्री रूप में जन्म लिया।प्रभु के आदेश पर वसुदेवजी बालरूपी भगवान श्रीकृष्ण को एक टोकरी में रखकर गोकुल के लिए चले. योगमाया ने कंस के कारागार के पहरेदारों की और गोकुल में भी सबकी निद्रा ही हर ली ताकि किसी को इस बात का पता न चल सके।
वसुदेवजी शिशुओं की अदला-बदली के लिए श्रीकृष्ण को लेकर चले तो खूब बारिश हो रही थी. यमुना का जल उफन आया था. शेषजी भी गुप्त रूप से पीछे-पीछे छत्र बनाए चलने लगे. यमुना को तो श्रीकृष्ण के पांव पखारने थे जैसे ही प्रभु के पैरों का स्पर्श मिला, यमुना का जल स्थिर हो गया. उसने वैसी ही राह दे दी जैसे भगवान श्रीराम को समुद्र ने दिया था. वसुदेव ने श्रीकृष्ण को यशोदाजी के बगल में लिटा दिया और उनकी कन्या को लेकर वापस चले आए।
कारागार के फाटक स्वतः बंद हो गए. कन्या को देवकी के बगल में लिटाकर वसुदेव ने पैरों की बेड़ियां डाल लीं. योगमाया ने अपनी लीला आरंभ की. उन्होंने रोना शुरू किया अचेत रक्षक जागे और कंस को जाकर देवकी की आठवीं संतान के बारे में सूचना दी. आठवीं संतान के बारे में सोचकर कंस को नींद ही न पड़ती थी. वह भागकर आया और कन्या को झपट लिया।देवकी ने विनती की- भैया तुमने सभी पुत्र मार डाले. यह तो कन्या है. इससे क्या भय? इसे तो मुझे प्रदान कर दो. स्त्री का वध करने का पाप अपने सर पर मत लो. कंस नहीं माना उसने कन्या के वध की नीयत से उसे पैरों से पकडा और चट्टान पर दे मारा. परंतु वह साधारण कन्या तो थी नहीं. कंस के हाथों से छूटकर हवा में उड़ीं और अपने वास्तविक रूप में आ गईं. आठ भुजाओं में आठ भयंकर आयुध लिए प्रकट हुईं।देवी के प्रकट होते ही ऐसा प्रकाश फैला कि सबकी आंखें चौंधिया गईं. कंस तो उन्हें देख भी न पाया. सिर्फ उनका ताप और उनकी हुंकार से उसने उनके क्रोध का आभास लगाया. देवी ने वसुदेव और देवकी जीको पूर्ण स्वरूप में दर्शन दिए।
देवी ने क्रोध में आंखे लाल करके कंस को कहा- मुझे मारने की चेष्टा तुमने की. इस संसार के सभी चर-अचर की गति का निर्धारण मैं करती हूं. मैं अजन्मा हूं. अरे मूर्ख! तेरा संहार करने वाला जन्म ले चुका है. तू निर्दोष बालकों की हत्या रोक दे।यब कहकर देवी वहां से अंतर्धान हो गईं और विंध्य पर्वत पर विराजमान हुईं. वहां वह माता विंध्यवासिनी के रूप में पूजी जाने लगीं. बाद में देवी ने शुंभ-निशुंभ का वध करके देवताओं की रक्षा की.इसी तरह एक तरफ भगवान श्रीकृष्ण जी ने दैत्य कंस का तोह दुसरी तरफ श्रीजीं की बडी बहन योगमाया जी ने शुंभ निशुंभ का वध किया।

1.जोगमाया मंदिर ,बारमेर राजस्थान
2.जोगमाया मंदिर ,मुल्तान जो की अब पाकिस्तान में है
3.जोगमाया मंदिर,जोधपुर राजस्थान
4.योगमाया मंदिर, वृन्दावन उत्तर प्रदेश
5.योगमाया मंदिर ,नया बांस खारी बावली,पुरानी दिल्ली .
6.योगमाया मंदिर ,देहरादून उतराखंड .
7.योगमाया मंदिर ,त्रिपुरा

ऐसा माना जाता है की ये मंदिर देवी योगमाया का ही है जो भगवान् कृष्ण, जो भगवान् विष्णु का एक अवतार थे की बहन थी (भगवत पुराण के अनुसार)। कृष्ण जी की माँ के भाई और योगमाया के मामा कंस ने कृष्ण जन्माष्टमी के दिन (जिस दिन श्री कृष्ण का जन्म हुआ था) योगमाया की हत्या करने का प्रयास किया था। परन्तु योगमाया ने बड़ी चतुराई से कृष्ण के स्थान पर खुद को प्रस्थापित कर लिया था। जब कंस ने देवी योगमाया की हत्या करने का प्रयास किया तो अपने भाई, कृष्ण द्वारा कंस की हत्या की भविष्यवाणी के पश्चात गायब हो गयी।अन्य कथा मुग़ल सम्राट अकबर II के इस मंदिर में संधि की है। उनकी पत्नी अपने पुत्र मिर्ज़ा जहांगीर की कैद और देशनिकाला से व्याकुल थी। मिर्ज़ा जहांगीर को लाल किले के एक अंगरक्षक की मृत्यु के पश्चात किले की खिड़की से भागते समय पकड़ लिया गया था। योगमाया उनके स्वप्न में आई, जिसके पश्चात रानी ने अपने पुत्र की सलामत वापसी के लिए उनकी प्रार्थना की और कसम खायी की जब मेरा पुत्र सही सलामत वापस लौटेगा तो मैं योगमाया मंदिर और पास के कुतबुद्दीन भक्तियार खाकी की मुस्लिम तीर्थ में फूलों से बने पंखे स्थापित करवायुंगी। उसके पश्चात से ये कार्यक्रम निरन्तर चलता आ रहा है जिसे वर्तमान में फूल वालों की सैर के नाम से जाना जाता है, ये त्यौहार प्रतिवर्ष अक्टूबर के महीने में तीन दिनों के लिया मनाया जाता है।
इस मंदिर का एक ने महत्वपूर्ण तथ्य यह है की ये प्राचीन मंदिर लगभग 5000 वर्ष (जब इस मंदिर का निर्माण किया गया था) पुराना है, इस प्राचीन मंदिर के आस पास रहने वाले व्यक्ति योगमाया मंदिर की देखभाल करते है। ऐसा माना और कहा जाता है की ये सभी व्यक्ति जिनकी संख्या वर्तमान में 200 से अधिक है के एक आम पूर्वज थे जिन्होंने सैकड़ो वर्ष पूर्व इस मंदिर की देखभाल करना प्रारम्भ किया था जिसमे देवी की पूजा, देवी योगमाया के दिन में दो बार श्रृंगार, मंदिर की सफाई, प्रसाद को बनना और उसे मंदिर में आने वाले भक्तो को वितरित करना ओर अन्य संबंधित चीजे समिल्लित थी। ये 200 अजीब व्यक्ति वर्तमान में मंदिर की देखभल करते है और अपने पूर्वजो की परंपराओं और आचारो को स्वेच्छा और सौहार्दपूर्ण ढंग से आगे बढ़ाते है।फूलवालों की सैर का वार्षिक उत्सव प्रत्येक वर्ष शरद ऋतू (अक्टूबर-नवंबर) के दौरान मनाया जाता है। ये सैर महरौली में स्थित सूफी संत कुतुबुद्दीन भक्तियार खाकी से शुरू होती है। इस उत्सव को सर्वप्रथम सं 1812 में मनाया गया था जो वर्तमान में दिल्ली का एक महत्वपूर्ण अंतर-विश्वास त्यौहार बन चुका है। इस उत्सव के दौरान फूलों से पंखो को देवी योगमाया के मंदिर में अर्पित किया जाता है।

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