हूँ मैं परी पापा की,
अबला नही सबला हूँ मैं।।
गये वो दिन जब मैं
खुटों से बंधी पड़ी थी,
की दहलीज लांघ न सकी थी मैं।।
हूँ मैं परी पापा की,
अबला नही सबला हूँ मैं।।
सीता बन सावित्री बन सुहाग की लाज बचाई थी मैं,
जब आन पड़ी परीक्षा की,
अग्नि को अर्पित हुई थी मैं।।
हूँ मैं परी पापा की,
अबला नही सबला हूँ मैं।।
देख अस्मत को लूटता,
रण बीच बन चंडी खड़ी हूँ मैं।।
मैं हूँ परी पापा की,
अबला नही सबला हूँ मैं।।
जब बतन पर आए आँच
हाथ लिए अस्त्र खड़ी हूँ मैं।
सुत नहीं सुता हूँ मैं।।
हूँ मैं परी पापा की,
अबला नही सबला हूँ मैं।।
साभार : दिलीप श्रीवास्तव, शिक्षक की फेसबुक वॉल
शानदार
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