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मंगलवार, 22 नवंबर 2022

विचार प्रवाह : प्रेम और पाबंदी - धनंजय श्रीवास्तव

   मैंने हर रिश्तों को आजाद रखा, कभी उन पर बंदिशें नहीं लगाई ! यहां तक कि, अपने बीबी-बच्चों पर भी नहीं ! बल्कि, मेरी ये सोच हमेशा से रही कि, मेरी पत्नी स्वयं बाजार जाकर अपनी खरीददारी करें, अपने हिसाब से अपनी जरूरतों का सामान ले आये ! मैं अपने बेटे को जो सोलह साल का हैं उसे भी मार्केट दौड़ाता रहता हुं जाओं सब्जी लेकर आओं, फलाना सामान लेकर आओं, अपनी जरूरतों का सामान बाजार जाकर खरीदों ! ताकि, तुम्हें ज्ञात हो, मालुम चले कि, कौन से सामान कहां मिलते हैं, किस मूल्य में मिलते हैं ?? कभी-कभी तो मेरी पत्नी कहती हैं कि, ये अभी बच्चा हैं इसे कहां मार्केट भेज रहे हैं, इसे समझ नहीं आयेगा ! तब मैं समझाता हुं कि, जब तुमलोग बाहर निकलकर ये सब करोगें तब भटक खुलेगा, तुम्हें समय और पैसों की कदर होंगी ! कैसे मोल-भाव करना हैं, दुनियां में कैसे-कैसे लोग मिलेंगें, किस-किस तरह की बातें सुनने और देखने को मिलेंगी वगैरह...वगैरह !
   ठीक इसी प्रकार मैंने वास्तविक  या आभासी दुनियां के लोगो पर भी कभी पाबंदी नहीं लगाई और शायद कहीं ना कहीं मेरा हक भी नहीं बनता कि, मैं आभासी दुनियां के उन लोगो पर पाबंदी लगाऊं जिनको मैं अपना काफी करीबी मानता हुं बेशक वो मुझे अपना करीबी माने या न माने ! दोनो तल पर हमें कुछ ऐसे लोग भी मिलें जो हृदय के काफी करीब हैं ! लेकिन कोई मुझ पर अपना हक जताता हैं प्यार से डांटता हैं, समझाता हैं तो मुझे बेहद खुशी होती हैं ! ऐसा लगता हैं कि, कोई अपना हैं जो मुझे सही राह दिखा रहा हैं ! 
   मेरे इस मन की बात को लिखने का अभिप्राय बस इतना हैं कि, मैं जब किसी को या किसी पर कोई पाबंदी नहीं लगाता तो लाजिमी हैं कि, कोई मुझ पर भी पाबंदी नहीं लगाऐगा ! मगर बात यहीं खत्म नहीं होती...बात तो ये हैं कि, मैं उस इंसान के पाबंद में स्वयं को महसुस करने लगता हुं ! मसलन...वो कैसा होगा ? किस परिस्थिति  में होगा ? वो शर्म से कुछ नहीं कहता ! आखिर वो नाराज कैसे हो गया ?? मेरे जुबान से कहीं कोई ऐसी बात तो न हो गयी कि, वो नाराज हो गया ! जबकि, मैं स्वयं माप-तौल कर बोलने की भरपुर कोशिश करता हुं !
      हां जहां कठोर और सही बात बोलता हुं वहां मुझे दुख या ग्लानि नहीं होता बल्कि, एक संतोष का भाव आता हैं कि, मैंने कुछ गलत नहीं कहा ! जो सही था वही बोला हैं, जिसका मन में कोई पश्चाताप या प्रायश्चित नहीं होता है ! लेकिन, 
    जहां किसी से या कोई अपना दस रोज से संवाद, बोल-चाल बंद कर देता हैं तो ऐसा लगता हैं कि, ये सम्बंध टुटने वाला हैं या टुटने के कगार पर हैं ! ये क्युं महसुस होने लगता हैं ??  और ये क्या केवल मुझे ही महसुस होता हैं या अन्य को भी ???
   मैं समझता हुं कि, जहां प्रेम हैं वहां न तो पाबंदी होनी चाहिये और न अविश्वास!  फिर मुझे ये अविश्वास क्यों घेर लेते हैं ?? 
   अंतत: मेरी यही विनम्र विनती हैं कि, आप सभी एक-दुसरे संवाद करना ना छोड़े ! एक-दुसरे से बाते करतें रहें ! हो सकता हैं मैं दस रोज से किन्हीं कारणों से व्यस्त रहुं मगर आप तो आजाद हैं ! 
धनंजय श्रीवास्तव की कलम से

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