भारत की स्थिरता की विशिष्ट स्थिति क्या दर्शाती है?
पड़ोसी देशों में मुश्किल परिस्थितियों के बावजूद देश शांत है
द इकोनॉमिस्ट ब्यूरो। एक दूर दृष्टि वाला अर्थशास्त्री नई दिल्ली में खड़ा होकर चारों ओर की अशांति को देख-समझ सकता है। इस साल की शुरुआत में भारत के पूर्वोत्तर पड़ोसी देश नेपाल में असमानता को लेकर "जेन-जी" के आंदोलन से विरोध प्रदर्शन भड़क उठे थे। इसका मुख्य कारण था कि जहां एक और आम नेपाली नागरिक बेरोजगारी से जूझ रहा था वहीं दूसरी ओर राजनीतिक राजवंशों के बच्चे इंस्टाग्राम पर विदेशों में बिताई गई अपनी शानदार छुट्टियों और डिजाइनर कपड़ों का प्रदर्शन कर रहे थे। इससे पहले बांग्लादेश के छात्रों ने भी पिछले साल शेख हसीना की सरकार को हटाने के लिए क्रांति का नेतृत्व किया, जो 2009 से प्रधानमंत्री थीं। भारत के दक्षिण में पड़ोसी देश श्रीलंका में लोगों ने 2022 में राष्ट्रपति भवन पर धावा बोल दिया था, जिसके बाद राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे को सत्ता छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। श्री राजपक्षे के कार्यकाल में आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ था, जिसके कारण देश दिवालिया हो गया था तथा ईंधन और दवाइयों का संकट हो गया था। देश के पश्चिम में स्थित पाकिस्तान को जेल में बंद पूर्व प्रधानमंत्री के समर्थकों के विरोध प्रदर्शन का सामना करना पड़ रहा है तथा आईएमएफ द्वारा भी उसकी डूबती अर्थव्यवस्था को बचाया गया है।
लेकिन भारत में ऐसी स्थिति नहीं है। दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत आश्चर्यजनक रूप से स्थिर है। इस वर्ष देश राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के टैरिफ वार का सामना कर रहा है। भारत को रूस से तेल की खरीद के कारण विशेष रूप से इस दंडात्मक टैरिफ का निशाना बनाया गया है। इसके साथ ही इस वर्ष भारत ने परमाणु-सशस्त्र पाकिस्तान के साथ भी युद्ध का सामना किया था। देश की अर्थव्यवस्था पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। पाकिस्तान के साथ-साथ बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका भी आईएमएफ के कार्यक्रमों में भाग ले रहे हैं। इस बीच, भारत की दस वर्षीय सरकारी बॉन्ड यील्ड दर वर्ष की शुरुआत से 7 प्रतिशत से थोड़ा कम है तथा पाकिस्तान और श्रीलंका को जो 12 प्रतिशत ब्याज दर देनी पड़ रही है यह उससे काफी कम है। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार लगभग 700 अरब डॉलर या सकल घरेलू उत्पाद का 18 प्रतिशत है—जो 11 महीनों के आयात के लिए पर्याप्त है। विकास दर 6 से 8 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ रही है।
भारत हमेशा कभी इतना स्थिर नहीं रहा जितना आज है। 1947 में ब्रिटेन से स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद से देश को बार-बार भुगतान संतुलन की समस्याओं का सामना करना पड़ा है। 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध के बाद विनाशकारी सूखा पड़ा, जिसके कारण देश को खाद्य सहायता पर निर्भर रहना पड़ा, जिसके बदले में अमेरिका ने उसे रुपये का अवमूल्यन करने पर मजबूर कर दिया था। 1991 में खाड़ी युद्ध के कारण तेल की कीमतों में वृद्धि तथा कुवैत में श्रमिकों द्वारा भेजे जाने वाले धन में कमी के कारण देश को एक और संकट का सामना करना पड़ा। सरकार को ऋण के लिए कोलैटरल के रूप में देश का सोना विमान द्वारा ब्रिटेन भेजने के लिए बाध्य होना पड़ा। हालाँकि, भारत के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने इस संकट का फायदा उठाया और इसे निर्यात नियंत्रण की "लाइसेंस राज" प्रणाली को खत्म करने और मुद्रा अवमूल्यन के बहाने के रूप में इस्तेमाल किया। इससे अर्थव्यवस्था को स्थिर करने में मदद मिली।
फिर भी, 2013 तक देश अभी भी वैश्विक पूंजी की दया पर निर्भर था। मॉर्गन स्टेनली नामक बैंक ने भारत को ब्राजील, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका और तुर्की के साथ उभरते बाजारों के "फ्रेजाइल फाइव" समूह में रखा था। ये सभी देश बढ़ती अमेरिकी ब्याज दरों के प्रति संवेदनशील थे। "टेपर टैंट्रम" के दौरान, जब अमेरिका ने वित्तीय संकट के बाद क्वांटिटेटिव इजिंग प्रोग्राम को कम करना शुरू किया, तो मई से अगस्त तक रुपये में 20 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। सरकार ने देश की बैंकिंग प्रणाली में सुधार किया, ऋणदाताओं को खराब ऋणों का पता लगाने के लिए प्रोत्साहित किया और दिवालियापन संहिता में सुधार किया। गैर-निष्पादित ऋण 2018 में 15 प्रतिशत से घटकर इस वर्ष 3 प्रतिशत हो गए हैं।
राजकोषीय अपरिवर्तनवाद ने भी इसमें मदद की है। श्रीलंका का हालिया संकट, अपर्याप्त कर कटौती और मुद्रा मुद्रण द्वारा सक्षम घाटे के खर्च के कारण उत्पन्न हुआ था। भारत में राजकोषीय और चालू खाता दोनों तरह के दोहरे घाटे हैं, लेकिन इसने अपने बजट घाटे को कोविड-19 महामारी की शुरुआत के 9 प्रतिशत से घटाकर 5 प्रतिशत से कम कर दिया है। सरकार की योजना 2031 तक अपने ऋण-से-जीडीपी अनुपात को 57 प्रतिशत से घटाकर 50 प्रतिशत करने की है। हालाँकि विनिर्माण निर्यात में गिरावट आई है, लेकिन सेवाओं के निर्यात—ज्यादातर व्यावसायिक प्रक्रिया और आईटी आउटसोर्सिंग—से होने वाला राजस्व अब जीडीपी का 15 प्रतिशत है, जो एक दशक पहले 11 प्रतिशत था, जिससे विदेशी पूंजी प्रवाह पर भारत की निर्भरता कम हुई है।
यहां तक कि तेल, जो लंबे समय से भारत की दुखती रग रहा है, भी इन दिनों कोई समस्या नहीं रह गया है। इसका एक कारण यह भी है कि पिछले कुछ वर्षों में तेल की कीमतें अपेक्षाकृत कम रही हैं। लेकिन ऐसा इसलिए भी है क्योंकि सरकार और उद्योग ने अर्थव्यवस्था की इस संवेदनशीलता को कम कर दिया है। रणनीतिक तेल बफर और नई रिफाइनरी क्षमता से भी इसमें अंतर आता है। सस्ते आयातित रूसी कच्चे तेल से भी इसमें फर्क पड़ा है, जिससे पिछले वर्ष लगभग 8 बिलियन डॉलर की विदेशी मुद्रा की बचत हुई, हालांकि इससे अमेरिका के राष्ट्रपति श्री ट्रम्प की नाराजगी को भी भारत को झेलनी पड़ी है। 2021 में पेट्रोल में इथेनॉल मिलाने के आदेश से उन ड्राइवरों को परेशानी हुई है जो अपने इंजन की सुरक्षा के लिए चिंतित थे, लेकिन इससे गन्ना किसान खुश हुए हैं और जीवाश्म ईंधन के आयात बिल में और कमी आई है।
भुगतान संतुलन संकट का न होना ही युवा भारतीयों के सड़कों पर न उतरने का एकमात्र कारण नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे नेपाल में सोशल मीडिया पर काफी असमानता देखी जा सकती है (हालाँकि इसका ज्यादातर हिस्सा बॉलीवुड सितारों से आता है, जिन्होंने कम से कम अपनी खुद की दौलत तो कमाई है)। बांग्लादेश की तरह सरकारी नौकरियों तक पहुँच भी शिकायतों का कारण बनती है। आधी से ज़्यादा नौकरियां "पिछड़ी" जातियों या अन्य वंचित समूहों के लिए आरक्षित हैं, जिससे बाकी सभी परेशान हैं। पिछले साल स्नातक बेरोज़गारी दर 29 प्रतिशत थी। यह आंशिक रूप से इसलिए क्योंकि कई लोग बार-बार सिविल सेवा प्रवेश परीक्षाओं में बैठते हैं। कुछ लोग या तो कम रोज़गार वाले गिग वर्क में लगे हैं या "टाइमपास" में लगे हैं, जिसका भारतीय-अंग्रेज़ी शब्द है बेवजह समय काटना है।
शायद भारत में असंतोष जताने के अन्य रास्ते भी हैं जो उसे इस तरह की राजनीति से दूर ले जाते हैं। मार्च में महाराष्ट्र के 35 लाख की आबादी वाले शहर नागपुर में दंगे भड़क उठे। इसका निशाना कोई भी वर्तमान सत्ताधारी नहीं था - बल्कि निशाना था 17वीं सदी के मुस्लिम सम्राट औरंगजेब का मकबरा, जिसने हिंदुओं पर अत्याचार किया था। लेकिन विरोध प्रदर्शनों के न होने के लिए एक अधिक आशावादी व्याख्या भी है की "भारत की स्पष्ट रूप से बढ़ती अर्थव्यवस्था देश में यह विश्वास और भावना पैदा करती प्रतीत होती है कि बेहतर चीजें अभी वास्तव में आने वाली हैं। डेटा प्रदाता सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में भारतीयों से एक से दस के पैमाने पर अपने जीवन की संतुष्टि का मूल्यांकन करने के लिए कहा गया। हालांकि इस समय अधिकांश लोग इस सर्वेक्षण में चार या पांच अंक दे रहे हैं, लेकिन वे अपने भविष्य को लेकर अधिक आशान्वित हैं। पांच साल में उन्हें इसके बढ़ कर छह या सात अंक तक पहुंचने की उम्मीद है। अंत में यह कहना भी आवश्यक है कि, किसी भी चीज को सहना आसान है, यहाँ तक कि अशांत दक्षिण एशियाई अर्थव्यवस्था में जीवन के तनाव और दबाव को भी, अगर आप यह उम्मीद नहीं करते कि यह हमेशा के लिए बना रहेगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Post Comments