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मंगलवार, 3 जून 2025

Lmp. समाज के अदृश्य नायक : प्रदीप सक्सेना "मुकेश" की प्रेरणादायक कहानी

उत्तर प्रदेश के लखीमपुर-खीरी जिले के मोहल्ला नौरंगाबाद में एक सामान्य से घर में जन्मे प्रदीप सक्सेना उर्फ मुकेश, जिन्हें अधिकतर लोग स्नेहवश मुकेश सक्सेना के नाम से जानते हैं, एक ऐसे व्यक्तित्व के धनी हैं जिन्होंने जीवनभर समाज सेवा को अपना धर्म माना। वह समाज के उन सच्चे सेवकों में से हैं जिन्होंने न कभी मंच मांगा, न प्रचार, न किसी पुरस्कार की लालसा की। उनका जीवन एक साधारण परिवेश में पला-बढ़ा, लेकिन उनके विचार, उनका समर्पण और उनके कर्म असाधारण रहे।

पारिवारिक पृष्ठभूमि और जीवन यात्रा

7 जुलाई 1962 को जन्मे मुकेश जी अपने तीन भाई-बहनों में सबसे छोटे हैं। उनके पिताश्री स्व. गंगाराम सक्सेना ने अपने बच्चों को सादगी, ईमानदारी और कर्तव्यपरायणता का पाठ पढ़ाया। बड़े भाई सुशील कुमार, मंझले भाई अनिल कुमार (जो अब इस दुनिया में नहीं हैं) और चार बहन का स्नेह उन्हें जीवनभर मिलता रहा। बड़े भाई  स्वर्गीय सुशील जी की पत्नी और पुत्र भी नहीं रहे, लेकिन उनकी पुत्रवधू नेहा और पोती शुभी आज भी मुकेश जी के साथ रहती हैं। बड़े भाई की बेटी शिवानी अविवाहित हैं और वह भी उन्हीं के साथ हैं। यह परिवार, आपसी प्रेम और त्याग की मिसाल है।

विवाह और व्यक्तिगत आघात

मुकेश जी का विवाह 27 जनवरी 1992 को मोहल्ला इंदिरा नगर, शाहजहांपुर निवासी श्रीमती नीलू सक्सेना से हुआ। यह रिश्ता प्रेम और समझदारी से भरा हुआ था। परंतु जीवन ने उन्हें एक गहरा आघात दिया, जब लंबी बीमारी के बाद 18 जुलाई 2024 को नीलू जी का निधन हो गया। यह क्षण मुकेश जी के लिए बेहद पीड़ादायक था। जीवनसंगिनी के रूप में नीलू जी न केवल एक पत्नी थीं, बल्कि उनकी ताकत, प्रेरणा और सबसे करीबी साथी भी थीं। उनके साथ बिताए हर क्षण की स्मृति आज भी मुकेश जी की आंखें नम कर देती है।

उनकी एकमात्र पुत्री वर्तिका सक्सेना का विवाह उनके जीवनसाथी के रहते ही लखीमपुर खीरी के मोहल्ला भुइफोरवानाथ निवासी श्री अजय सक्सेना के पुत्र अंकित सक्सेना से हो गया था। उनकी पुत्री वर्तिका जी आज अपने परिवार में सुखी जीवन बिता रही हैं।

समाज सेवा :  श्री चित्रगुप्त कायस्थ सभा व सेवादल

मुकेश जी श्री चित्रगुप्त सभा के संस्थापक सदस्य और नौरंगाबाद क्षेत्र के क्षेत्रीय मंत्री रहे हैं। 90 के दशक में गठित चित्रगुप्त सेवा दल का वह एक मजबूत स्तंभ थे। उस समय शादियों में टेंट लगाना, बर्तन धोना, खाना परोसना सब कुछ अपने हाथों से करना पड़ता था। सेवा दल की स्थापना का उद्देश्य था — ऐसी शादियों में बिना किसी दिखावे के पूरे समर्पण से सेवा करना।

मुकेश जी और उनके साथियों ने सैकड़ों कन्याओं की शादियों को इस सेवा भाव से सम्पन्न कराया। बिना किसी अपेक्षा के, बिना पानी पिए, वे सेवा में जुटे रहते थे। यह वह समय था जब सेवा ही उनकी साधना थी और थकान उनके आसपास भी नहीं फटकती थी।

रक्तदान : जीवन के लिए रक्त की बूंदें

मुकेश जी का रक्त समूह "A Negative" है, जो बहुत ही दुर्लभ माना जाता है। इस दुर्लभता को उन्होंने कभी विशेषाधिकार नहीं, बल्कि ज़िम्मेदारी माना। उनकी रक्तदान यात्रा विवाह के तीसरे दिन शुरू हुई, जब उन्हें एक नवजात शिशु को रक्त देना पड़ा।

"A-negative" – यह रक्त समूह जितना दुर्लभ, उतना ही कीमती । मुकेश जी ने इसे कभी अपनी पहचान नहीं बनने दिया, बल्कि लोगों की पहचान बचाने का ज़रिया बना लिया।
डॉक्टर आर.सी. सिंह, डॉक्टर ए बी सिंह, डॉक्टर अरुण सिंह, अनुपम नर्सिंग होम, बैसवाड़ा नर्सिंग होम – इन सभी अस्पतालों में अगर A-negative ब्लड की ज़रूरत पड़ती, तो डॉक्टर सबसे पहले मुकेश जी को फ़ोन करते।
गांव के हिन्दू या मुस्लिम हो या गरीब हो या शहर के प्रतिष्ठित परिवार – ब्लड की ज़रूरत का कोई धर्म, जाति, वर्ग नहीं होता – और यह दर्शन उन्होंने जीवन भर जिया।

बरेली तक जाकर उन्होंने रक्त दिया, लेकिन वह अफसोस उन्हें आज भी है कि उस महिला की जान नहीं बच सकी। परंतु उनकी आंखों में आंसू नहीं, सेवा की चमक होती है। उन्होंने कभी यह नहीं देखा कि सामने वाला कौन है, किस जाति या धर्म का है। इंसानियत उनके लिए सबसे बड़ा धर्म रही।

करियर की यात्रा : मेहनत और आत्मनिर्भरता

मुकेश जी एक कोरियर कंपनी में सामान्य वेतन पर काम करते थे, लेकिन उनके भीतर आत्मनिर्भरता की एक चिंगारी थी। उन्होंने 1991 में चित्रांश एंटरप्राइजेज नाम से खुद की कोरियर कंपनी की शुरुआत की। 1993 में उन्होंने इसकी शाखाएं मोहम्मदी, लखीमपुर और गोला में भी खोल लीं। सीमित संसाधनों में भी उनका आत्मबल और कर्तव्यपरायणता उन्हें कभी डिगने नहीं देती।

कोविड की दूसरी लहर आई तो चारों ओर भय, लाचारी और चीत्कार के सिवा कुछ न था। लोग अपनों को अस्पताल के बाहर छोड़ देते, एंबुलेंसें चीखतीं, और श्मशान घाटों की चिमनियाँ दिन-रात धधकतीं। यह समय केवल सांसों की गिनती का नहीं था, यह इंसानियत की अग्नि परीक्षा थी।

जहाँ अपने ही अपनों से मुँह मोड़ रहे थे, वहाँ एक आदमी था जो PPE किट पहनकर लावारिस मृतकों के शव उठाता था, उन्हें कंधा देता था, और पूरे विधि-विधान से उनका अंतिम संस्कार कराता था। न कोई रिश्ता, न कोई पहचान—सिर्फ यह भाव कि "यदि कोई नहीं है, तो मैं हूँ
कोविड की दूसरी लहर आई तो चारों ओर भय, लाचारी और चीत्कार के सिवा कुछ न था। लोग अपनों को अस्पताल के बाहर छोड़ देते, एंबुलेंसें चीखतीं, और श्मशान घाटों की चिमनियाँ दिन-रात धधकतीं। यह समय केवल सांसों की गिनती का नहीं था, यह इंसानियत की अग्नि परीक्षा थी। कोरोना ने भले ही अपनों को छीन लिया, पर इस आदमी ने समाज को फिर यह भरोसा दिलाया कि अभी भी मानवता जिंदा है।

"कुछ लोग घर जलने पर दूर से तमाशा देखते हैं,
कुछ बाल्टी भर लाते हैं…
और कुछ ऐसे भी होते हैं
जो खुद को पानी बना लेते हैं।"

मुकेश जी ने अपने आपको पानी बना लिया। उन्होंने समाजसेवी संस्थाओं के साथ मिलकर दर्जनों बेसहारा मृतकों का सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार कराया। वह हर वह काम करते दिखे, जिसे लोग 'अशुभ' और 'खतरनाक' कहकर दूर भागते थे। महामारी की कालिमा में जब रिश्ते भी डर के साये में छिप गए थे, तब यह व्यक्ति उजाला लेकर निकला।

शहर में कोई जरूरतमंद भूखा न रहे, कोई बीमार इलाज के बिना तड़प न जाए, कोई मरीज रक्त के लिए तरसता न रहे—यह उनकी सोच नहीं, उनकी दिनचर्या बन गई। स्वयं रक्तदान किया, और दूसरों को प्रेरित करके करीब 100 से अधिक जरूरतमंदों की जान बचाई। उनके फोन की घंटी जब भी किसी रक्त की माँग के लिए बजी, उन्होंने कभी यह नहीं पूछा—"कौन है?", "कहाँ है?" उन्होंने सिर्फ कहा—"मैं आता हूँ।"

"इंसान वही है जो दूसरे के दर्द को जी सके,
और खुद की सांसों से किसी को जिंदगी दे सके।"

मुकेश जी की सेवा केवल आपदा की घड़ी तक सीमित नहीं रही। वर्षों से वे श्री चित्रगुप्त कायस्थ सभा के बैनर तले हर छोटे-बड़े व्यक्ति की मदद में संलग्न हैं। कभी राशन बाँटा, कभी गरीब बच्चों की पढ़ाई कराई, कभी किसी के इलाज का खर्च उठाया—और कभी-कभी तो केवल किसी रोते हुए को चुप कराकर भी उन्होंने सेवा की।

यह आदमी न नायक बनने निकला, न प्रसिद्धि की खोज में था। यह तो बस वह इंसान है, जो हर सुबह किसी के चेहरे पर मुस्कान लाने की सोच लेकर उठता है, और रात को थका-मांदा नहीं—संतुष्ट होकर सोता है।

"कुछ लोग इतिहास में नाम छोड़ते हैं,
कुछ लोग दिलों में छाप छोड़ते हैं।"

कभी मंदिर में भंडारा करवाते हुए, कभी अस्पताल में रक्तदाता की तलाश में दौड़ते हुए, कभी किसी वृद्ध के अंतिम संस्कार में अकेले सिर झुकाए खड़े, मुकेश जी हर जगह उसी भाव के साथ दिखते हैं—"यह मेरा समाज है, और जब तक मैं हूँ, यह अकेला नहीं है।"

न कोई सोशल मीडिया पर प्रचार ना फोटो ना सेल्फी ना ही प्रशासन ने किसी सेवा का प्रमाण पत्र दिया जैसा कि उसे दौर में लोगों ने प्रशासन से कोरोना वारियर्स प्रमाण पत्र प्राप्त कर सोशल मीडिया में उसे प्रचारित किया । 
कहने को उन्होंने कोई राजकीय सम्मान नहीं लिया, कोई मंचीय प्रशंसा नहीं माँगी न ही किसी ने दी, लेकिन शहर के उन परिवारों से पूछिए जिनका कोई न था, उन माताओं से पूछिए जिनके बेटे को रक्त नहीं मिल रहा था, उन वृद्धों से पूछिए जो अस्पताल में अकेले पड़े थे—वे कहेंगे, "भगवान ने भेजा है इसको।"

उनका जीवन हमें यही सिखाता है कि—

"धर्म वही है, जो निभाया जाए।
सेवा वही है, जो निस्वार्थ हो।
और इंसान वही है,
जो किसी और के लिए भी जी सके।"

समाज को दिया : तन-मन-धन से

मुकेश जी मानते हैं कि आमदनी का 10% समाज को देना हर नागरिक का धर्म होना चाहिए, लेकिन वे स्वयं अपनी आमदनी का अधिकांश भाग समाज को देने में संकोच नहीं करते। चित्रगुप्त धर्मशाला, मंदिर निर्माण, गरीब कन्याओं की शादी — हर जगह उनका योगदान रहता है। उनकी यह भावना उन्हें सच्चे चित्रांश और सच्चे इंसान की श्रेणी में लाती है।

वर्तमान सेवाएं और भूमिका

आज मुकेश जी श्री चित्रगुप्त सभा के उपाध्यक्ष, जन जागृति संस्थान के मीडिया प्रभारी और एक योग केंद्र के सह-केंद्र प्रमुख के रूप में कार्यरत हैं। उम्र के इस पड़ाव में भी वह सक्रिय, सजग और संवेदनशील हैं।
जी त्रिमूर्ति आर्ट्स क्लब, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय ब्लड बैंक और रोगी सेवा संस्थान से सक्रिय रूप से जुड़े रहे। उनके द्वारा आयोजित जागरण, कीर्तन, आर्केस्ट्रा — सब कुछ समाज को एकजुट करने का माध्यम बने।

निष्कर्ष : एक सच्चा हीरो
शहर की गलियों में एक नाम है जो सन्नाटों में भी गूंजता है। मुकेश। न कोई पदवी, न कोई शोर, न किसी मंच की माला—परंतु जो कुछ करता है, वह समाज की रग-रग में पेबस्त हो गया। कोई उसे समाजसेवी कह सकता है, कोई "रक्तदाता", कोई "संस्कार दाता", तो कोई "मसीहा"। पर इन सब नामों से परे, वह बस एक ऐसा इंसान है, जिसने औरों का दुःख अपना समझा, और अपने सुख को समाज में बाँट दिया।

मुकेश जी उन अदृश्य नायकों में से हैं, जो दिखते कम हैं, लेकिन समाज की आत्मा में बसे होते हैं। उनका जीवन सादगी, सेवा और संघर्ष का संगम है। उन्होंने कभी प्रचार नहीं चाहा, लेकिन उनका जीवन स्वयं एक प्रेरक महाकाव्य है।  भाषा में कहें तो — “जिसने स्वयं को जलाया, उसी ने दूसरों के जीवन में उजाला किया।”

मुकेश सक्सेना जी की यह कहानी हर उस व्यक्ति को प्रेरित करती है जो सोचता है कि बिना पैसे, बिना पहुंच, बिना पहचान कुछ नहीं हो सकता। उनका जीवन प्रमाण है कि सेवा, समर्पण और सजगता से ही सच्चा सामाजिक परिवर्तन संभव है।

4 टिप्‍पणियां:

  1. मुकेश जी का काम हमेशा से ही समाज सेवा ही रहा सही मायने मे एक प्रेरणा श्रोत है

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    1. दैनिक जन जागरण न्यूज़ ने जो मुकेश सक्सेना जी के लिए लेख लिखा है। वह पर्याप्त नहीं है मुकेश जी तो और अधिक समाजसेवी है।

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    2. बहुत अच्छा

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    3. समाजसेवी श्री मुकेश जी की लंबी आयु की ईश्वर से कामना करता हूं,भगवान चित्रगुप्त जी का आशीर्वाद श्री सक्सेना जी पर सदा बना रहे।

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