"एआई का बढ़ता साया: भाषा, शिक्षा और रोजगार पर मंडराता संकट"
संरक्षक,"दैनिक जनजागरण" अनूप सिंह की कलम से...✍️
हम जिस युग में जी रहे हैं, वहाँ ज्ञान और बुद्धि का स्थान अब धीरे-धीरे एक मशीन ने लेना शुरू कर दिया है। इस मशीन का नाम है, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस। कुछ लोग इसे क्रांति मानते हैं, कुछ तरक्की की दौड़, परंतु जो इसकी आहट को गहराई से सुनते हैं, उन्हें यह एक अदृश्य संकट की तरह प्रतीत होता है, एक ऐसा संकट जो धीरे-धीरे हमारे सोचने, समझने और रचने की शक्ति को निगलता जा रहा है।
कभी पढ़ाई का मतलब होता था – धैर्य, साधना और अभ्यास। विद्यार्थी कठिन से कठिन प्रश्नों को हल करने के लिए घंटों बैठते थे, शब्दों के चयन में पसीना बहाते थे। लेकिन आज? आज विद्यार्थियों को अगर एक स्प्रेडशीट समझनी हो, तो वे उसे किसी एआई टूल में डाल देते हैं और चुटकी बजाते जवाब सामने आ जाता है। क्या यह सुविधा है? शायद हां। पर यह सुविधा यदि अभ्यास और समझ को लील जाए, तो यह घातक है। यह 'विद्या' नहीं, बल्कि ‘विद्या का आडंबर’ है। वह विद्या, जो सोच की जड़ों को सींचती है, अब ऊपरी पत्तों की चकाचौंध में खोती जा रही है। लेखन अब मौलिक नहीं रहा, विचार अब निज नहीं रहे, और ज्ञान अब परोसकर परोसा जा रहा है – जैसे किसी होटल में बना-बनाया खाना।
आश्चर्य की बात तो यह है कि इस संकट की शुरुआत सबसे पहले उन क्षेत्रों से हो रही है जिन्हें हम भविष्य का आधार मानते थे – कंप्यूटर विज्ञान और इंजीनियरिंग। गूगल और माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियाँ खुद कह रही हैं कि अब उनके कोड का एक बड़ा हिस्सा एआई से लिखा जा रहा है। यानी इंसानी प्रोग्रामर का काम मशीनें कर रही हैं, और धीरे-धीरे वही मशीनें इंसान की जगह ले रही हैं। नौकरियाँ कम हो रही हैं, नए पद नहीं बन रहे, और जो बन भी रहे हैं, वे उन्हीं के लिए हैं जो मशीनों को चलाना जानते हैं, उनसे आगे सोच सकते हैं।
सोचिए, जब एक प्रोग्रामर ही कोडिंग छोड़कर चैटजीपीटी से कोड लिखवा रहा हो और यह भी भूल जाए कि उसने क्या लिखा था – तो क्या वह अब एक रचनाकार रहा? क्या वह अब ज्ञान के निर्माता हैं, या सिर्फ उपभोक्ता? और जब निर्माता ही न रहें, तो संस्कृति, कला, और साहित्य का भविष्य कैसा होगा?
शिक्षा का मूल उद्देश्य एक सक्षम, संवेदनशील और विचारशील समाज बनाना था। पर आज यह सिर्फ ‘सर्टिफिकेट’ और ‘डिग्री’ पाने का माध्यम बनती जा रही है। अगर छात्र गणित की मूलभूत समझ खो देंगे, और भाषा के मर्म को न समझ पाएंगे, तो फिर वे सिर्फ परीक्षा पास करने वाले बनेंगे – विचारशील नागरिक नहीं। और यह किसी भी राष्ट्र के लिए सबसे बड़ा संकट है।
प्रेमचंद होते तो शायद इस पर एक कथा लिखते – जिसमें एक गाँव होता, वहाँ का सबसे होशियार लड़का एक दिन शहर जाता है और वहाँ मशीनें उसे ऐसा बना देती हैं कि वह अपने ही गाँव की बोली भूल जाता है, खेती के गणित भूल जाता है, रिश्तों की भाषा भूल जाता है। वह अब शब्दों में नहीं, कोड में सोचता है – पर भावना से शून्य।
इसलिए अब ज़रूरत है – फिर से शिक्षा के उस रूप को लौटाने की, जो केवल अंकों और डिग्रियों तक सीमित न हो। हमें फिर से साहित्य पढ़ना होगा, गणित से दोस्ती करनी होगी, और भाषा को सिर्फ ‘संचार’ नहीं, ‘संस्कार’ मानना होगा। छात्रों को चाहिए कि वे ‘डॉन क्विक्ज़ोट’ जैसी रचनाएं पढ़ें, कबीर के दोहे समझें, और तर्क के साथ-साथ रस भी खोजें।
हमें ऐसे मनुष्यों की ज़रूरत है जो एआई को केवल चला न सकें, बल्कि उसे समझ सकें, उसे दिशा दे सकें। मशीनें तेज़ हो सकती हैं, पर मनुष्य की संवेदना, करुणा और विवेक, इनका कोई विकल्प नहीं है। गणित और भाषा की शिक्षा ही वह नींव है जिस पर यह विवेक टिक सकता है।
इसलिए यह समय है सोचने का – कि हम एआई की छाया में जीना चाहते हैं, या अपनी रोशनी में आगे बढ़ना।
और वह रोशनी आज भी हमारे पास है – भाषा, गणित, और विचारशील शिक्षा के रूप में।
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