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शुक्रवार, 6 जून 2025

विश्व पर्यावरण दिवस के उपलक्ष्य में विशेष आलेख : "विकास की कुल्हाड़ी और विनाश की लकड़ी"


(विश्व पर्यावरण दिवस के उपलक्ष्य पर विशेष आलेख)

संरक्षक, दैनिक जनजागरण,अनूप सिंह की कलम से.✍️ 

जब आदमी ने पेड़ काटा, तो कुल्हाड़ी मुस्कराई और बोली – "वाह मालिक, क्या बात है! अब तेरा ही नहीं, मेरा भी विकास होगा।"
पेड़ बेचारा तो कुछ कह भी न सका, जड़ से उखड़ा पड़ा रहा, और ऊपर से माचिस की तीली में तब्दील होकर उसी घर को जला आया जिसमें कल तक उसकी छांव में चाय पी जाती थी।

भइया, अब पर्यावरण कोई गौशाला नहीं रह गया है, जहाँ गायें सुकून से बैठा करती थीं। अब तो ये एक ऐसी विधवा हो गई है जो हर त्यौहार पर भी सफेद कपड़े पहने रहती है, क्योंकि हमने इसके पति – 'प्राकृतिक संतुलन' – को विकास की आग में होम कर दिया है।

प्रकृति ने जब हमें हवा दी, तो हमने उस पर एसी फिट कर दिया।
प्रकृति ने जब हमें जल दिया, तो हमने बोतल में बंद कर पांच सितारा बना डाला।
प्रकृति ने जब हमें पेड़ दिए, तो हमने उन्हें फर्नीचर में बदल दिया और उस पर बैठकर कविता लिखी – "पेड़ बचाओ!"

वाह री मानव जाति! तूने तो महाभारत से भी ज़्यादा अद्भुत युद्ध छेड़ दिया है – वो भी अपने ही घर के खिलाफ।

कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर पेड़ बोल सकते, तो क्या कहते?
"भइया, कम से कम हमारी लकड़ी से तो टॉर्च बनवा लेते, ताकि भविष्य की अंधेरी राहें थोड़ी तो रोशन हो पातीं!"
मगर नहीं, हमने तो लकड़ी को केवल जला डालने और उसकी राख पर बहस करने के काम में लगाया।

सुविधा का जो भूत हमने सिर पर बैठाया है, अब वही एसी से निकलकर हमें निमोनिया दे रहा है, और फ्रिज से निकलकर मधुमेह।
गाड़ियों की रेलमपेल ऐसी है जैसे हर कोई श्मशान की ओर रेस लगा रहा हो – लेकिन आराम से, एसी में बैठकर।

औद्योगिक विकास की बात करें तो लगता है जैसे ये फैक्टरियां केवल मनुष्य की मूर्खता के मॉडल तैयार करती हैं।
एक फैक्ट्री पान मसाला बनाती है, दूसरी कैंसर का इलाज।
एक उद्योग कोल्ड ड्रिंक बेचता है, दूसरा अस्पताल खोलकर डायबिटीज़ का इलाज करता है।
मतलब प्रकृति से दुश्मनी और व्यापार से दोस्ती – यही अब आधुनिक मानव का धर्म बन चुका है।

अब जल संकट की बात करें, तो गाँव का बूढ़ा कहता है – "बेटा, अब तो कुआं भी कुर्सी पर बैठ गया है, कहता है – अब मुझे खोजना पड़ेगा!"
वो दिन दूर नहीं जब आदमी अपने नाम के आगे 'वॉटर बैलेंस' लगाने लगेगा – जैसे अभी 'नेटवर्थ' लगाते हैं।

सरकारें हर साल पानी बचाने के लिए बड़े-बड़े नारे देती हैं –
“हर बूंद की कीमत जानो” – और फिर उसी बूँद को फाउंटेन में उड़ा देती हैं।

अब नीति आयोग चेतावनी दे दे या पानी रोकर बह जाए – आदमी तो वही करेगा जो उसे करना है –
“सबमर्सिबल लगाओ, फोटो खिंचवाओ और कहो – देखो, हमने विकास किया है।”

जब कोई कहता है कि ‘2030 तक 40 प्रतिशत लोग बिना पीने के पानी के रहेंगे’,
तो हम जवाब देते हैं – “अरे कोई बात नहीं, बिसलेरी है न!”

उपसंहार:
प्रकृति अब भी मौन है।
वो ना तुम्हें कोर्ट में घसीटेगी, ना नोटिस भेजेगी।
वो बस धीरे-धीरे तुम्हारे बच्चों की सांसें कम कर देगी,
ताकि अगली पीढ़ी तुमसे ये न पूछ सके कि –
“बाबूजी, आपने क्या बचाया हमारे लिए?”

अब भी वक्त है, कुल्हाड़ी की धार मोड़ दो और पेड़ के नीचे बैठकर सोचो –
“क्या विकास वो है, जिसमें पेड़ मरते हैं और आदमी एसी में जीने की नौटंकी करता है?”

वरना वो दिन दूर नहीं, जब लोग अपने बच्चों से कहेंगे –
“बेटा, पेड़ नाम की चीज़ पहले ज़मीन पर हुआ करती थी, अब बस फोटो में दिखती है।”

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