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शनिवार, 5 अप्रैल 2025

समय संवाद - “दिशा-चिंतन : खुले में शौच से खुले विचार तक”

 ...... ✍️ अनूप सिंह की कलम से

एक ज़माना था…
जब सुबह-सवेरे की हवा में चिड़ियों की चहचहाहट के साथ एक और आवाज़ सुनाई देती थी—“दिशा जाना है।”
ये वाक्य न जाने कितने घरों में एक तयशुदा वक़्त पर गूंजता था।
मगर उस दिशा का वास्ता ना किसी GPS से था, ना Google Maps से।
वो “दिशा” होती थी खेत-खलिहान की, जहाँ हर घर के पुरुष, स्त्रियाँ और बच्चे लोटा-बाल्टी लेकर काफ़िले में निकल पड़ते थे।

इस “प्रातः भ्रमण” के अपने ही कायदे थे—
कुछ पेट में बीड़ी डालकर प्रेशर बनाते थे,
कुछ तंबाकू मसलते थे,
और कुछ दो-दो कप चाय पीकर उस परम आनंद की खोज में निकलते थे जिसे अब “मोमेंट ऑफ रिलीफ” कहा जाता है।

घर में शौचालय?
वो तो मानो किसी राजा-महाराजा की सुविधा लगती थी।
गाँवों में तो स्थिति ये थी कि शौचालय अगर बन भी गया, तो लोगों ने उसे कबाड़ रखने या अचार पकाने की जगह बना लिया।

और फिर एक दिन…
पूरे देश को हिलाकर रख देने वाला एक नारा आया—
“स्वच्छ भारत अभियान”
केंद्र सरकार ने गाँव-गाँव में शौचालय बनवाए।
घर-घर में टाइल्स लगी चमचमाती सीटें आ गईं।
लेकिन आदतें?

आदतें अब भी लोटा लिए खुले आसमान की ओर दौड़ती हैं।

और अब ज़रा एक दृश्य कल्पना कीजिए…

सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष में तैर रही हैं—नासा के एक मॉड्यूल में, काँच की बड़ी खिड़की से पृथ्वी को निहारती हुई।
वो देख रही हैं कि इधर पृथ्वी के एक हिस्से में तेज़ रॉकेट चाँद की ओर दौड़ रहा है,
और ठीक उसी वक्त भारत के उत्तर में, कुछ लोग एक कतार में खेतों की ओर दौड़ रहे हैं—हाथ में लोटा, चेहरे पर ताज़गी, और आँखों में संतोष।

सुनीता की आँखें भर आती हैं… लेकिन गर्व से नहीं।
वो सोच रही हैं—“हम कहाँ से कहाँ पहुँच गए, और ये लोग अब भी वहीं के वहीं!”
उसके होंठ काँपते हैं—
“हे भारत, तू दिशा में जा रहा है… पर किस दिशा में?”

इस चित्र को सोचिए—
एक ओर मंगलयान, दूसरी ओर मलयान।
एक ओर चाँद की सतह पर झंडा गाड़ने का जुनून, दूसरी ओर खेत की मिट्टी पर हर सुबह ‘आदत की लकीर’।
अंतर इतना विशाल कि नासा भी माप नहीं सके।

अब लोग मोबाइल लेकर जाते हैं दिशा में।
फेसबुक खोलते हैं, इंस्टाग्राम रील्स देखते हैं।
कभी-कभी तो लगता है कि घर का वॉशरूम “डिजिटल कैफ़े” में बदल गया है।
अब प्रेशर नहीं बनता, जब तक YouTube न चले!
और शौचालय अब पूजा स्थान की तरह हो गया है—
हर दिन जाते हैं, पर मन नहीं लगता।

बच्चे पहले स्कूल से भागते थे, अब बाथरूम से नहीं निकलते।
“पापा आ जाओ!” की आवाज़ पर जवाब आता है—
“Zoom कॉल में हूँ बेटा!”

लेकिन हकीकत तो यह है कि हमारे देश की स्वच्छता केवल शौचालय बनाने से नहीं सुधरेगी,
बल्कि सोच बदलने से सुधरेगी।
आदतें जब तक स्वच्छ नहीं होंगी,
कितने भी “स्वच्छ भारत” अभियान चलाओ,
वो लोटा फिर भी खेतों की ओर निकल ही जाएगा।

हमारे देश में “दिशा” अब भी एक कोड वर्ड है।
बदलना है तो कोड नहीं,
सोच बदलिए।

क्योंकि—

“हम चाँद पे पहुंच गए, पर अब भी खेतों में हैं।
हम मंगल ढूँढ रहे हैं, पर मल से उबर नहीं पाए हैं!”

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(क्रमशः – “समय-संवाद” के अगले कॉलम में पढ़ें: “मोबाइल और मोक्ष – जब वॉशरूम बना योगस्थली”)

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