आगरा साइबर अपराधियों का अवैध धंधा डाटा पर चलता है। किसे फोन मिलाना है। किसे घेरना है। यह पता करना साइबर अपराधियों के लिए कोई मुश्किल काम नहीं है। सोशल मीडिया और शॉपिंग से लोगों की डिटेल लीक होती है। साइबर अपराधियों तक पहुंचती है। ऑन लाइन ही नहीं ऑफ लाइन शापिंग से भी लोगों के मोबाइल नंबर साइबर अपराधियों तक पहुंच जाते हैं। यह खुलासा खुद आगरा में डिजिटल अरेस्ट करने वाली फर्जी सीबीआई की टीम ने पूछताछ में किया।साइबर थाना पुलिस ने डिजिटल अरेस्ट के आरोप में मोहम्मद राजा रफीक (नई दिल्ली), मोहम्मद दानिश व मोहम्मद कादिर (बड़ौत, बागपत) व मोहम्मद सुहेल अकरम (असोम) को पकड़ा था। एक दिन में शातिरों के एक खाते में 2.87 करोड़ रुपये की रकम आई थी। मोहम्मद सुहेल अकरम कंप्यूटर साइंस में बीटेक है। डीसीपी सिटी सूरज कुमार राय ने बताया कि सुहेल ने पढ़ाई पूरी कर नौकरी भी की थी। वेतन कम लगा। अपराध की राह पर चल निकला। सुहेल ने पूछताछ में बताया कि सुबह से शाम तक लोग सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं। कुछ भी खरीदना हो पहले गूगल पर सर्च जरूर करते हैं। दाम चेक करते हैं। ऑफ लाइन शापिंग में भी दुकानदार मोबाइल नंबर जरूर लेते हैं। ग्राहक किसी भी शोरूम में घुस जाए। भले ही कुछ न खरीदें। अपना मोबाइल नंबर जरूर देकर आता है। बड़ी संख्या में लोग ऑन लाइन पेमेंट करने लगे हैं। आरोपित ने बताया कि उनका गैंग पहले नौकरी के नाम पर ठगी करता था। इसमें रिस्क ज्यादा था। लोगों से मिलना पड़ता था। सामने आना पड़ता था। धंधा बदला। डिजिटल अरेस्ट शुरू किया। किसी से मिलना नहीं पड़ता। सिर्फ डाटा चाहिए होता था। वह बाजार में बिकता है। उनकी एक टीम सुबह से शाम सोशल मीडिया पर टॉरगेट चिन्हित करती थी। सोशल मीडिया किसी नशे से कम नहीं है। पहले कुछ नया खरीदने पर पड़ोसी तारीफ करते थे। अब लोगों के पड़ोसियों से संबंध ही नहीं। तारीफ सोशल मीडिया पर मिलती है। इसलिए जब तक लोग नई चीज खरीदने की जानकारी शेयर नहीं करते उन्हें चैन नहीं पड़ता। चाहें वह कलाई घड़ी ही क्यों न हो। किसके पास कार है। किसके पास बाइक। यह भी कंपनी से पता चल सकता है। वाहनों की सर्विस किसने कराई। उसका डाटा ले लो। बीमा किसने कराया। इसका डाटा ले लो। पुलिस को बताया कि परचून की दुकान खोलने के लिए भी महंगाई के इस दौर में पांच से दस लाख रुपये चाहिए। किराए पर दुकान। उनके काम के लिए सिर्फ एक कमरा चाहिए। मेज-कुर्सी लगाई। पीछे सीबीआई का लोगो। टेबल पर लैपटॉप और काम शुरू। पकड़े नहीं जाएं इसलिए दस से पंद्रह डॉलर में तीन महीने के लिए वर्चुअल नंबर ऑन लाइन लेते थे। उससे व्हाट्स एप शुरू करते थे। सोशल मीडिया पर आईपीएस लिखते तमाम अधिकारियों के फोटो आने लगते हैं। जो अच्छा लगे उसकी फोटो कॉपी करते डीपी बना लेते। चोरी के मोबाइल खरीदते। रकम ट्रांसफर कराने के लिए खाते चाहिए होते हैं। तमाम तरीके हैं। बस्तियों में जाओ। सरकारी योजना बताकर खाते खुलवाओ। उनका प्रयोग करो।
सोमवार, 14 अक्टूबर 2024
साइबर अपराधियों का नया धंधा : शॉपिंग करने वाले ध्यान दें!

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