Breaking

सोमवार, 11 दिसंबर 2023

प्रयागराज / नैनी कम्युनिटी चर्च में बच्चों ने बिखेरे रंग, हर्षोल्लास के साथ मनाया गया वर्ल्ड संडे स्कूल डे

प्रयागराज। नैनी ईसाई बस्ती स्थित नैनी कम्युनिटी चर्च में वर्ल्ड संडे स्कूल डे के अवसर पर नन्हे मुन्ने बच्चों ने बेहद सुंदर प्रस्तुतियाँ दीं। कार्यक्रम का संचालन संडे स्कूल शिक्षिका एडना सेठ ने किया, जिसमें क़रीब चार दर्जन बच्चों ने हिस्सा लिया। इस मौक़े पर बच्चों के द्वारा प्रभु यीशु की पैदाइश को नाट्य रूपांतरण से चरित्रार्थ किया गया साथ ही बच्चों ने मधुर येशु आगमन गीत “हम तीन राजा पूरब से हैं  भी गाये तथा समूह नृत्य भी प्रस्तुत किए गए। जिससे वहाँ मौजूद सभी लोग मंत्रमुग्ध हो उठे। कार्यक्रम की शुरुआत चर्च प्रेसिबिटर इंचार्ज जितेंद्र नाथ ने प्रभु की प्रार्थना तथा बाइबिल के वचनों पर मनन करते हुए बताया कि, प्रभु यीशु मसीह का आगमन मानव जाति के कल्याण के लिए हुआ तथा पवित्र शास्त्र बाइबिल के इस वचन के अनुसार हर एक मसीही जो प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करता है, उसके लिए जरूरी है कि वह खुद को उस दिन के लिए तैयार रखे जब प्रभु यीशु मसीह का दूसरा आगमन होगा और इसके लिए हम सब को चाहिए कि ज्यादा से ज्यादा हम मसीह में एक दूसरे के संग संगती को बढ़ाएं और एक दूसरे से भाईचारा स्थापित करें। कार्यक्रम के अंत में सैंटा क्लॉज़ द्वारा बच्चों को गिफ्ट तथा कैंडीज़ बाटे गये जिसका बच्चों ने जम कर आनंद लिया। वहीं दूसरी ओर डायोसिस ऑफ लखनऊ (सीएनआई) की ओर से सिविल लाइंस स्थित ऑल सैंट कैथेड्रल चर्च में “वर्ल्ड संडे स्कूल डे” धूम-धाम से मनाया गया। कार्यक्रम में बच्चों के बीच मुख्य अतिथि डायोसिस ऑफ लखनऊ के बिशप मोरिस एडगर दान भी मौजूद रहे । कार्यक्रम 2 बजे से शुरू किया गया, जिसमें बच्चों के द्वारा धार्मिक मसीही गीतों पर नृत्य, संगीत एवं गायन की प्रस्तुतियाँ दी गई साथ ही कई धार्मिक कथाओं पर नाट्य मंचन भी किया गया। कार्यक्रम का संचालन डॉ० विनीता इसूबियस द्वारा किया गया । 
बिशप मोरिस एडगर दान ने वहाँ मौजूद लोगों को “वर्ल्ड संडे स्कूल डे” से जुड़ी कुछ रोचक जानकारियाँ बताई। उन्होंने बताया कि संडे स्कूल मूल रूप से वस्तुतः स्कूल थे जो ऐसे स्थान थे जहाँ गरीब बच्चे पढ़ना सीख सकते थे। संडे स्कूल आंदोलन 1780 के दशक में ब्रिटेन में शुरू हुआ। औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप कई बच्चों को पूरे सप्ताह कारखानों में काम करना पड़ा। ईसाई परोपकारी लोग इन बच्चों को अशिक्षा के जीवन से मुक्त कराना चाहते थे। 19वीं सदी में काम के घंटे लंबे होते थे। पहला मामूली विधायी प्रतिबंध 1802 में आया। इसके परिणामस्वरूप एक बच्चे द्वारा प्रति दिन काम करने की संख्या 12 तक सीमित कर दी गई। 1844 तक इस सीमा को फिर से कम नहीं किया गया। इसके अलावा, शनिवार नियमित कार्य सप्ताह का हिस्सा था। इसलिए, इन बच्चों के लिए कुछ शिक्षा प्राप्त करने के लिए रविवार ही एकमात्र उपलब्ध समय था।इंग्लिश एंग्लिकन इवेंजेलिकल रॉबर्ट राइक्स (1725-1811) इस आंदोलन के प्रमुख प्रवर्तक थे। संप्रदायों और गैर-सांप्रदायिक संगठनों ने इस दृष्टिकोण को समझा और ऊर्जावान रूप से संडे स्कूल बनाना शुरू कर दिया। दशकों के भीतर, आंदोलन बेहद लोकप्रिय हो गया था। 19वीं सदी के मध्य तक, रविवार स्कूल में उपस्थिति बचपन का लगभग एक सार्वभौमिक पहलू था। यहां तक ​​कि जो माता-पिता स्वयं नियमित रूप से चर्च नहीं जाते थे, वे आम तौर पर इस बात पर जोर देते थे कि उनके बच्चे संडे स्कूल जाएं। कामकाजी वर्ग के परिवार शिक्षा प्राप्त करने के इस अवसर के लिए आभारी थे। थे। बेशक, धार्मिक शिक्षा भी हमेशा एक मुख्य घटक थी। बाइबल पढ़ना सीखने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली पाठ्यपुस्तक थी। इसी तरह, कई बच्चों ने धर्मग्रंथों से अंशों की नकल करके लिखना सीखा। कार्यक्रम के अन्त में बिशप मोरिस एडगर दान बच्चों के साथ ग़ुब्बारे आकाश की तरफ़ छोड़े। बिशप मोरिस एडगर दान ने बताया कि उनके द्वारा भविष्य में बच्चों की बेहतर शिक्षा के लिए कई योजनाएँ बनाई जा रही है, जिसमें हर वर्ग को शामिल किया जाएगा।कार्यक्रम में सचिव मनीष ज़ैदी, पादरी प्रवीण मैसी,
रेव्ह  कमला सिंह, अभिषेक पॉल अतुल पॉल पूनम दास अनुकृति दत्ता मान्य सेठ अंशिका प्रकाश आशीष जान अर्पिता शैलेश सिंह
विजय कुमार, अमित सैमुअल, अरुण पॉल, सुनील वर्मा, राकेश कुमार,निशी खन्ना संजय खन्ना मृदुला खन्ना आदि मौजूद थे।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Post Comments