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बुधवार, 28 दिसंबर 2022

धार्मिक / परोपकार और कर्तव्यनिष्ठा ही ईश्वर की भक्ति है : धर्मवीर गुप्ता

भगवान  वासुदेव  गंभीर मुद्रा में बैठे थे। नारायण नारायण    की आवाज के साथ नारद का प्रवेश )

नारद-   (नारायण नारायण की आवाज ) भगवन आज आप कुछ चिंतित दिखाई दे रहे हैं। चिंता का कारण क्या है?

वासुदेव-  मुनिश्रेष्ठ! मेरी चिंता का कारण मेरी श्रेष्ठ रचना मानव है।

नारद-    ऐसा क्यों प्रभु! क्या किया है इन मानवों ने?

वासुदेव-  क्या नहीं किया इन्होंने? इन्होंने वह सब कुछ किया जो एक मानव को नही करना चाहिए।

नारद -   प्रभु ! आपकी गूढ़ बातें समझ पाना मेरे लिए तो संभव नही। कुछ स्पष्ट बताएं।

वासुदेव-   आज मैं यह देख कर चिंतित हो उठा हूँ कि मेरी श्रेष्ठ कृति मानव स्वार्थ लालच झूठ जाति तथा वर्ग के भेद में भटक कर मानवता से दूर हो गयी है। लालच  वश भाई भाई को काट रहा है पिता पुत्र को पुत्र पिता को , क्या इसलिए की थी मैंने यह रचना?

नारद-     प्रभु यह तो कलयुग का असर है।

वासुदेव-   युग तो केवल विचारों से बदलता है जब सभी मानव सत्यवादी ईर्ष्या द्वेष से परे थे तब वह सतयुग कहलाया । जब कुछ मानव ऐसे हुए जो ईर्ष्या द्वेष तथा स्वार्थ की भावना से प्रेरित थे तब वह त्रेतायुग कहलाया और जब आधी आबादी असत्य वचन बोलने वाली , स्वार्थ ईर्ष्या द्वेष से  प्रेरित हो गयी तो वह द्वापर कहलाया, आज जब अधिकांश लोग मानव धर्म से दूर होकर असत्यवादी, ईर्ष्या द्वेष स्वार्थ से प्रेरित हो गए है तब यह कलयुग कहलाता है।

नारद  -    प्रभु यह मानव धर्म क्या है?

वासुदेव-   मुनिश्रेष्ठ क्या आपको भी मानव धर्म बताना पड़ेगा ।

नारद-     प्रभु मैं तो बस आपका गुणगान करता हुआ भ्रमण करता रहता हूँ। मुझे इस सब के बीच सोचने का अवसर ही नहीं मिलता है। कृपया मुझे मानव धर्म के बारे में बताइए।

 वासुदेव -मुनिश्रेष्ठ क्या आप सच कह रहे हैं कि आपको मानव धर्म का ज्ञान नहीं है?

नारद-     नहीं प्रभु।

वासुदेव-   क्या मेरे राम रूप तथा कृष्ण रूप में किए गए कार्यों का भी ज्ञान नहीं है?

नारद-    प्रभु में उन कार्यों को कैसे भूल सकता हूं ? उन्हें सोच कर तो मैं आज भी प्रसन्न हो जाता हूँ। आपका राम रूप में पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर वन गमन करना, वृक्षों से हाथ जोड़कर सीता का पता पूछना , वर्ग भेद भुलाकर शबरी के जूठे बेर खाना, वानर जैसे निम्न जीव का साथ लेकर रावण जैसी शक्तिशाली आतताई को पराजित करना, लक्ष्मण जी का आपके साथ वन जाना, भरत जी का आप जैसे भाई के लिए राजगद्दी का परित्याग करना, प्रभु वह सब मैं कैसे भूल सकता हूँ। प्रभु ,आपका कृष्ण रूप में सभी से प्रेम करना, अन्याय को समाप्त करने के लिए झूठ  बोलना,यह सब भला कैसे भूल सकता हूं ? परंतु प्रभु इन बातों से मानव धर्म का क्या लेना देना?

वासुदेव-  मुनिश्रेष्ठ ,इन सब बातों का मानव धर्म से बहुत लेना देना है।

नारद-     वह कैसे प्रभु?

वासुदेव-  मैंने यह सब इसलिए किया कि इससे मानव प्रेरणा लें और मेरे द्वारा दिखाए गए मार्ग पर चलें। माता पिता की आज्ञा का पालन करें। भाई भाई का सम्मान करें। जाति वर्ग का भेद न करें।वृक्षों का भी सम्मान करें। उनकी रक्षा करें। सभी से प्रेम करें। अन्याय को मिटाने के लिए यदि झूठ बोलने की आवश्यकता हो तो वह भी करें। परंतु.........।

             (वाक्य अधूरा ही छोड़ देते हैं)

नारद-    परंतु....... क्या प्रभु?

वासुदेव- परंतु आज भी मानव जाति , वर्ग , जाति के आधार पर स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरे को निम्न मानते हैं दूसरों के कष्ट हरने के बजाए उनके कष्टों से प्रसन्न होते हैं । एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या भाव रखते हैं। परोपकार से दूर रहते हैं । क्या इसीलिए की थी मैंने यह रचना?

नारद-    प्रभु , आपकी चिंता कब समाप्त हो सकती हैं?

वासुदेव- मुनिश्रेष्ठ जब सभी मानव एक दूसरे को समान भाव से देखेंगे, सभी से प्रेम हो रखेंगे , असहायों की मदद करेंगे , पीड़ितों के कष्ट हरेंगे तब दूर होगी मेरी चिंता और मुझे गर्व होगा अपनी श्रेष्ठ रचना पर।

 नारद-    प्रभु भले ही आप का स्मरण न करें ।

वासुदेव - हाँ, मुनिश्रेष्ठ भले ही वह मेरा स्मरण न करें क्योंकि जो जाति, वर्ग का भेद भुलाकर असहायों की सहायता करता है, पीड़ितों के कष्ट हरता है ,ऊँच-नीच सभी को समान समझता है, जो सदैव परोपकार में लगा रहता है, मेरे द्वारा सौंपे गये कार्य को निष्ठापूर्वक करता है ,वह मेरा भक्त है और मैं सदा उस पर प्रसन्न रहता हूँ।

नारद-    प्रभु आपने मुझे फिर संशय में डाल दिया ।

वासुदेव- वह कैसे मुनिश्रेष्ठ ?

नारद -   आप कह रहे हैं कि जो मानव आपके द्वारा सौंपे गये कार्य को मनोयोग से करता है वह भी आपका परम भक्त हैं, और जो सदैव परोपकार करता है वह भी आपका भक्त हैं और आप सदैव उस पर प्रसन्न रहते हैं ।

वासुदेव -  सत्य है मुनिश्रेष्ठ , मैंने जिसे जो कार्य सौंपा है वह यदि उस कार्य को मनोयोग से करता है तो वह मेरा परम भक्त है क्योंकि वह कर्म योग करता है और जो सदैव परोपकार में लगा रहता है जो सभी मनुष्यों को समान समझता है वह भी मेरा भक्त है ,जो मानव स्वार्थ भावना से दूर होकर परोपकार की भावना से कोई श्रेष्ठ लक्ष्य निर्धारित करता है तो मैं उसे उस लक्ष्य तक अवश्य पहुंचाता हूँ ।

 नारद -  प्रभु आपकी लीलाएं धन्य हैं। आप धन्य है। यह आपके ही गुण हैं कि आप उस व्यक्ति पर भी प्रसन्न रहते हैं जो मात्र परोपकार की भावना रखता हो सभी को समान भाव से देखता हो। दुख -सुख में समान रहता हो और अपने कर्तव्य का भली-भांति पालन करता हो।

             (नारायण नारायण की आवाज के साथ नारद का प्रस्थान।पर्दा  गिरता  है)

                       लेखक : धर्मवीर गुप्ता

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