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शनिवार, 5 नवंबर 2022

अघोरी सम्प्रदाय : इंसान का मांस-मल तक खा जाते हैं, श्मशान में बैठकर नरमुंड में भोजन, मुर्गे के खून से साधना

अघोरी पंथ या अघोर मत हिंदू धर्म का एक संप्रदाय हैं। इस पंथ को मानने वाले अघोरी कहलाते हैं। अघोर का अर्थ है, जो घोर ना हो अर्थात सहज और सरल होना ही अघोर हैं। इसके प्रवर्त्तक स्वयं अघोरनाथ शिव मानें जातें हैं। जानने वाली बात ये भी है कि विदेशों में भी ऐसे पुराने संप्रदाय का पता चलता है।इस पंथ के अनुयायी अपने मत को गुरु गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित मानते हैं, किंतु इसके प्रमुख प्रचारक मोतीनाथ हुए जिनके विषय में अभी तक अधिक पता नहीं चल सका है। इसकी तीन शाखाएँ (१) औघर, (२) सरभंगी तथा (३) घुरे नामों से प्रसिद्ध हैं। इस पंथ के अनेकों ग्रंथ है, जिनमें से से कुछ निम्नलिखित है – विवेकसार, गीतावली, रामगीता। इस पंथ के प्रचारकों द्वारा रामगढ़, देवल, हरिहरपुर तथा कृमिकुंड पर क्रमश चार मठों की स्थापना की जिनमें से चौथा प्रधान केंद्र है। इस पंथ को साधारणतः ‘औघढ़पंथ’ भी कहते हैं।अब इस संप्रदाय के ग्रंथो के ऊपर चर्चा करते हैं क्योंकि किसी भी संप्रदाय के बारे में जानने के लिए उसके ग्रंथो में क्या लिखा है, से जाना जा सकता है । इस संप्रदाय का मुख्य ग्रंथ विवेकसार है तो चलिए देखते हैं, कि आखिर क्या लिखा है इसमें – बाबा किनाराम ने आत्माराम की वंदना और अपने आत्मानुभव की चर्चा की है। उसके अनुसार सत्य वा निरंजन है जो सर्वत्र व्यापक और व्याप्य रूपों में वर्तमान है और जिसका अस्तित्व सहज रूप है। ग्रंथ में उन अंगों का भी वर्णन है जिनमें से प्रथम तीन में सृष्टिरहस्य, कायापरिचय, पिंडब्रह्मांड, अनाहतनाद एवं निरंजन का विवरण है; अगले तीन में योग साधना, निरालंब की स्थिति, आत्मविचार, सहज समाधि आदि की चर्चा की गई है तथा शेष दो में संपूर्ण विश्व के ही आत्मस्वरूप होने और आत्मस्थिति के लिए दया, विवेक आदि के अनुसार चलने के विषय में कहा गया है।यहां आप क्या देखते हैं, कि अघोर संप्रदाय के अघोरियों का दर्शन शास्त्र एक बहुत ही सरल तथा तर्किक दर्शनशास्र है। इसके अनुयायियों में सभी धर्म के लोग, (यहाँ तक कि मुसलमान भी), हैं।
अघोर संप्रदाय के साधक समदृष्टि के लिए नर मुंडों की माला पहनते हैं और नर मुंडों को पात्र के तौर पर प्रयोग भी करते हैं। चिता के भस्म का शरीर पर लेपन और चिताग्नि पर भोजन पकाना इत्यादि सामान्य कार्य हैं। अघोर दृष्टि में स्थान भेद भी नहीं होता अर्थात महल या श्मशान घाट एक समान होते हैं । जो लोग अपने को ‘अघोरी’ वा ‘औगढ़’ बतलाकर इस पंथ से अपना संबंध जोड़ते हैं उनमें अधिकतर शवसाधना करना, मुर्दे का मांस खाना, उसकी खोपड़ी में मदिरा पान करना तथा घिनौनी वस्तुओं का व्यवहार करना भी दिख पड़ता है जो कदाचित् कापालिकों का प्रभाव हो। इनके मदिरा आदि सेवन का संबंध गुरु दत्तात्रेय के साथ भी जोड़ा जाता है जिनका मदकलश के साथ उत्पन्न होना भी कहा गया है। अघोरी कुछ बातों में उन बेकनफटे जोगी औघड़ों से भी मिलते-जुलते हैं जो नाथपंथ के प्रारंभिक साधकों में गिने जाते हैं और जिनका अघोर पंथ के साथ कोई भी संबंध नहीं है
अघोर संप्रदाय के साधक मृतक के मांस के भक्षण के लिए भी जाने जाते हैं। मृतक का मांस जहां एक ओर सामान्य जनता में अस्पृश्य होता है वहीं इसे अघोर एक प्राकृतिक पदार्थ के रूप में देखते हैं और इसे उदरस्थ कर एक प्राकृतिक चक्र को संतुलित करने का कार्य करते हैं। मृत मांस भक्षण के पीछे उनकी समदर्शी दृष्टि विकसित करने की भावना भी काम करती है। कुछ प्रमाणों के अनुसार अघोर साधक मृत मांस से शुद्ध शाकाहारी मिठाइयां बनाने की क्षमता भी रखते हैं, लोगों में इस तरह की अनेकों रहस्य तथा भ्रांतियां प्रचलित है लेकिन अघोर विज्ञान में इन सब भ्रांतियों को खारिज कर के इन क्रियाओं और विश्वासों को विशुद्ध विज्ञान के रूप में तार्किक ढ़ंग से प्रतिष्ठित किया गया है।
एल एन सिंह

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