✍️ कलमकार अनिल कुमार श्रीवास्तव
आधुनिकता की रोशनी में देश के कर्णधार अंधकार की तरफ लगातार बढ़ते जा रहे हैं। वैश्विक महामारी बनी अदृश्य राक्षस कोरोना ने इस आधुनिकता को और अधिक गति दी है।
विज्ञान वरदान भी है और अभिशाप भी, कहावत हमेशा हर कसौटी पर खरी उतरी है। जो इस मोबाइल युग मे भी बराबर सटीक बैठ रही है। नित नई खोजें जहां हमारी राह आसान कर रही हैं वही प्रकृति से दूर सेहत के नजरिये से जटिलता की तरफ ढकेल रही हैं। लगातार बढ़ती जनसंख्या और विज्ञान की बनाई आसान राहों से मानव मशीनी होता जा रहा है और समयाभाव की वजह से आधुनिकता की अंधाधुंध दौड़ में शरीक हो गया है। न कोई स्वास्थ्य प्रेमी नियमित दिनचर्या बची है और न प्रकृति के पास बैठने की फुर्सत।
कम्प्यूटर व मोबाइल युग इंसान धीरे धीरे कम्प्यूटर होता जा रहा है। और इधर कोरोनकाल में घर वास के दौरान तो बड़ो के साथ साथ बच्चे भी इसकी जद में आ गए। बच्चों की प्रभावित हो रही शिक्षा को देखते हुए कम्प्यूटर, लैपटॉप, मोबाइल पर पड़ी शिक्षा की पद्धति ने तो लत का रूप अख्तियार कर लिया। हालांकि उससे पहले भी बच्चे टेलीविजन के शौकीन हुआ करते थे और यदा कदा परिजनों की ओट में मोबाइल भी देख लिया करते थे लेकिन कोरोनकाल में मोबाइल मजबूरी बन गया और यह मजबूरी कब आदत बन गयी पता ही नही चला। ऑनलाइन क्लासेज से चली पढ़ाई कब इंस्टाग्राम की वाल पर जा टिकी पता ही नही चला। अभी हाल में अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी के भारतीय शोधार्थियों ने दावा किया कि भारत मे 5 साल से नीचे 61 फीसदी बच्चे मोबाइल के शौकीन हैं। और यह दावा सही भी हो सकता है। खैर मेरी बात 5 साल से ऊपर वाले बच्चों की चल रही थी। हालांकि ऑनलाइन क्लासेज से लेकर तमाम अच्छी अच्छी बातों की जानकारी मिली, बच्चों की शिक्षा कोरोना से बाधित नही हुई, और भी ज्ञान अर्जित कर बच्चे बौद्धिक स्तर से मजबूत हुए, कुछ बच्चे यकीनन इंटरनेट से गलत दिशा में भी प्रस्थान कर गए होंगे। इन सब के बावजूद तमाम बच्ची में दृष्टि बाध्यता का इजाफा हुआ। आंकड़े तो नही हैं लेकिन यकीन के साथ कह सकता हूँ अगर मौजूदा समय मे किशोरों की नजर जांच करवाई जाय तो काफी बच्चों में दृष्टि दोष निकलेगा। मोबाइल की किरणों ने बच्चों में निकट दृष्टिदोष का इजाफा किया है। काफी बच्चे तो चश्मे बनवा चुके हैं और जफी बच्चे चश्मे के नम्बर वाली कतार में खड़े हैं।सही मायने में देखा जाय तो काफी हद तक इन कमजोर नजरों के लिए टीवी,कम्प्यूटर, मोबाइल, लैपटॉप से निकलने वाली किरणे ही दोषी हैं लेकिन पूरा गुनाह उनका है यह कहना थोड़ा न्यायसंगत नही। इसमे कोरोनकाल में बदली दिनचर्या और मिलावटी खान पान का भी बहुत बड़ा योगदान है। बच्चों का नियमित खाना, व्यायाम, खेलकूद आदि आदि सब डिस्टर्ब हो गया। खेलकूद, व्यायाम तो लगभग मोबाइल ने छीन लिया। आजकल बच्चे शारीरिक खेल खेलना ही कहां चाहते जिसमे मेहनत हो, वह तो वस बैठकर मोबाइल में ही खेल को भी समेट लेते हैं। खाना समय तो कोई रहा ही नही, और साथ ही नेचरल खाने से दूरी बनाकर फ़ास्ट फूड को प्राथमिकता देने लगे। खाने में विटामिन्स, प्रोटीन, आदि पोषक तत्वों की जगह मैदा, तेल, मसाला, खटाई आदि को प्राथमिकता देकर जीभ को खुश करने में लगे हैं। परिणाम स्वरूप तमाम अन्य बीमारियों के साथ चक्षुओं पर खासा असर पड़ा है। उधर विद्यालयों / अभिभावकों को भी बच्चों की आंखों से ज्यादा कैरियर/रिजल्ट की चिंता है। कोरोना रफ्तार थमने के बाद भी आदत में शुमार हो चुके मोबाइल के बिना बच्चों की शिक्षा अधूरी है। हॉलिडे होमवर्क से लेकर एक्स्ट्रा होमवर्क तक मोबाइल में ही है। यहां तक कई स्कूलों ने क्लास वाइज व्हाट्सएप ग्रुप बना रखे हैं जिनका संचालन बाकायदा शिक्षकगण करते हैं।
बच्चों की नजर को लेकर यह बेहद गम्भीर व चिंताजनक विषय है अभिभावकों व शिक्षकों दोनों के लिए कि देश/समाज/परिवार को रोशन करने वाला कैसा कर्णधार देना चाहते हैं। हालांकि समय के साथ अपडेट रहने के लिए मोबाइल जरूरी ही नही मजबूरी भी है लेकिन इस विषय पर मनीषियों को गम्भीरता से चिंतन कर आयु निर्धारण जैसे बिंदुओं पर विचार करना चाहिए। साथ ही नजरो को लेकर सरकार व प्रशासन के साथ स्वास्थ्य विभाग को भी गम्भीर होना चाहिए।
Very nice
जवाब देंहटाएं