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बुधवार, 2 नवंबर 2022

इस गांव को इसलिए कहा जाता है गोदाम.... पढ़िए !

एल एन सिंह, प्रयागराज : जनपद में सदर तहसील अंतर्गत विकास खंड भगवतपुर की ग्राम पंचायत उजिहनी आइमा में आज भी अंग्रेजी हुकूमत के दौरान बनाई गई नील फैक्ट्री के अवशेष मौजूद हैं, यहां के ग्रामीण बताते हैं कि लगभग सौ से दो सौ साल पहले यहां पर अंग्रेज नील बनाने की फैक्ट्री चलाया करते थे इसीलिए इस गांव को आज भी गोदाम के नाम से जाना है अंग्रेजों की नील फैक्ट्री और गोदाम यहां पर बना था अंग्रेजों के जाने के बाद देखरेख नही होने से वह जीर्ण शीर्ण होकर ध्वस्त हो गया लेकिन उसके अवशेश आज भी ग्राम पंचायत में मौजूद हैं, गांव के बुजुर्ग जानकार बताते हैं कि ब्रिटिश हुकूमत में यहां प्रति बीघा तीन कट्ठा जमीन में किसान को ना सिर्फ नील उगाने की मजबूरी थी बल्कि उसे काटकर गोदाम तक अपने खर्च पर पहुंचाना पड़ता था, ऐसा नहीं करने वाले किसान को जुर्माना एवं सजा का सामना करना पड़ता था जिसके लिए अंग्रेजों ने बाकायदा कचहरी की स्थापना करके उसमें एक मजिस्ट्रेट तैनात किया था, सुबह से शाम तक, शाम से रात और रात से सुबह तक पूरामुफ्ती थाना से आकर अंग्रेजी सिपाही यहां पर तैनात रहते थे ।यहां के स्थानीय बुजुर्ग लोगों ने अपनी स्मृति के आधार पर इस नील उत्पादन फैक्ट्री के बारे में कई बातें बताई जिसकी पुष्टि फैक्ट्री के अवशेष से भी होती है, उन्होंने बताया कि कटे हुए हरे पौधों को यहां बनी बड़ी बड़ी खुली टंकियों और गड़ी हुई नांदों यानी मवेशियों के खाने के मिट्टी के बर्तनों में दबाकर रख देते थे और ऊपर से पानी भर देते थे, बारह चौदह घंटे पानी में पड़े रहने से उसका रस पानी में उतर आता था और पानी का रंग धानी हो जाता था, इसके बाद पानी दूसरी टंकी या नांद में जाता था जहां डेढ़ दो घंटे तक लकड़ी से हिलाया और मथा जाता था, मथने के बाद पानी को स्थिर होने के लिए छोड़ दिया जाता था जिससे कुछ देर में जरूरी तत्व नीचे बैठ जाता था फिर नीचे बैठा हुआ यह नील साफ पानी में मिलाकर उबाला जाता था, उबल जाने पर यह बांस की फट्टियों के सहारे तानकर फैलाए हुए मोटे कपड़े या कैनवास की चांदनी पर ढाल दिया जाता था, यह चांदनी छनने का काम करती थी, पानी तो धीरे धीरे बह जाता था और साफ नील लेई के रूप में लगा रह जाती थी यह गीला नील छोटे छोटे छिद्रों से युक्त एक संदूक में रखा जाता था जिसमें गीला कपड़ा मढ़ा रहता था, इसे उसी में रखकर खूब दबाया जाता था इससे उसके सात आठ अंगुल मोटी तह जम जाती थी, फिर इसे छोटे छोटे टुकड़ों में काटकर सूखने के लिए रखा जाता था सूखने पर इन कतरों पर एक पपड़ी सी जम जाती थी, पपड़ी को साफ किया जाता था यही टुकड़े नील के नाम से बिकते थे, लेकिन उसी दौरान वर्ष 1896 में जर्मनी ने कृत्रिम नील का आविष्कार कर लिया तथा गांधीजी के सत्याग्रह आंदोलन और प्रथम विश्व युद्ध के चलते भारतीय नील की मांग कम होती गई जिससे अंग्रेजों को मजबूरन इस नील की फैक्ट्री बंद करना पड़ा था । बुजुर्ग बताते हैं कि आजादी के पहले अंग्रेज पूरामुफ्ती थाना में रहकर यहां के लोगों से जबरन नील की खेती कराते थे, अंग्रेज यहां की जनता को नील की खेती करने का फरमान सुनाकर गरीब किसानों को खेती के नाम पर कर्ज देते थे कर्ज से दबे किसान जीवन भर बंधुआ मजदूरी करने और अंग्रेजों के कोड़े खाने के लिए विवश थे, उत्पादन बढ़ाने के लिए उस समय अंग्रेजों की ओर से उजिहनी आइमा में नील का कारखाना लगाया गया था जिसमें लोगों को यातनाएं देकर काम लिया जाता था, हिंदुस्तान में व्यापार के इरादे से आए अंग्रेजों का दिल पहले से ही काला था व्यवसाय के नाम पर गोरे राजा महाराजाओं और जमींदारों से जमीन को लीज पर लेकर उसमें नील और अफीम की खेती कराने लगे थे उसी दौरान उजिहनी आइमा गांव में अंग्रेजों ने यहां के जमींदारों से जमीन लीज पर लेकर नील उत्पादन की फैक्ट्री लगा ली, आसपास की जमीन पर नील की खेती करके कारखाना में उसके उत्पादन का कार्य जोर शोर से करने लगे, धीरे धीरे अंग्रेजों ने यहां के गरीब किसानों को लालच देकर खेती का कार्य शुरू कराने के साथ ही उनको कर्ज उपलब्ध कराना शुरू कर दिया ।कर्ज देकर उन्होंने यहां के लोगों को ऐसे मकड़जाल में फंसाया कि जीवन भर उनकी गुलामी करने के बाद मौत के आगोश में चले गए, परिवार के मुखिया के बाद उसके परिवारीजनों को भी कर्ज के बोझ तले दबकर अंग्रेजों की गुलामी के लिए विवश होना पड़ा था, बुजुर्ग बताते हैं कि अंग्रेजों का प्रभुत्व जब हिंदुस्तान में बढ़ा तो उन्होंने नील की खेती में मुनाफा को देखते हुए यहां के किसानों को कम से कम तीन कट्ठा भूमि पर नील की खेती करने का कानून बना कर उसका पालन कराना शुरू कर दिया, जो किसान ऐसा करने से मना करते थे उन्हें सबके सामने 100 कोड़े लगाकर जलील किया जाता था, आस पास के गांवों के कुछ पुराने लोग बताते हैं कि उनके पूर्वजों ने नील की खेती कर रहे किसानों को उत्साहित करते हुए अंग्रेजों की बेगारी करने से मना किया तो अंग्रेजों ने उन्हें मुकदमे में फंसाकर सजा सुना दी थी, बाद में जब जर्मनी की ओर से कृत्रिम नील का उत्पादन शुरू कर दिया गया तो उजिहनी आइमा, पूरामुफ्ती क्षेत्र में अंग्रेजों की तरफ से नील की खेती से मुंह मोड़कर गन्ने की खेती के तरफ रुझान बढ़ा लिया गया ।अंग्रेजों के जमाने में नील की खेती उत्पादन को तिनकठया कानून के नाम से जाना जाता था, तीन कठिया खेती अंग्रेज मालिकों द्वारा उत्तर प्रदेश, बिहार के कई नदी के किनारों वाले जिलों के रैयतों किसानों पर नील की खेती के लिए जबरन लागू कानून के तीन तरीकों में एक था, खेती का अन्य दो तरीका कुरतौली और कुश्की कहलाता था, तीनकठिया खेती में प्रति बीघा 20 कट्ठा तीन कट्ठा जोत पर नील की खेती करना अनिवार्य बनाया गया था, साल 1860 के आसपास नीलहे फैक्ट्री मालिक द्वारा नील की खेती के लिए 5 कट्ठा खेत तय किया गया था जो साल 1867 तक तीन कट्ठा या तीनकठिया तरीके में बदल गया, इस प्रकार फसल के पूर्व में दिए गए रकम के बदले फैक्ट्री मालिक रैयतों के जमीन के अनुपात में खेती कराने को बाध्य करते थे अप्रैल साल 1987 में राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी द्वारा अंग्रेज अधिकारियों के साथ लगातार बातचीत और स्थानीय क्रांतिकारियों के विद्रोह के कारण यह तरीका खत्म कर दिया गया ।
भारतीय स्वतंत्रता इतिहास में गाँधीजी के सत्याग्रह का यह पहला प्रयोग था इस कार्य मे डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद जी का भी काफी योगदान था, यह तो पुरानी बातें हैं लेकिन आज भी अंग्रेजों की नील फैक्ट्री के अवशेष उजिहनी आइमा गांव में मौजूद हैं इसीलिए इस गांव को गोदाम के नाम से जाना जाता है, इस समय गांव के मौजूदा ग्राम प्रधान हरीशचंद्र जायसवाल का कहना है कि अंग्रेजों के जाने के बाद इस गोदाम पर वहां के कुछ दबंग लोगों ने कब्जा कर लिया है फैक्ट्री, गोदाम लगभग 4 बीघे की भूमि पर फैला हुआ है उनके द्वारा एसडीएम सदर से शिकायत कर फैक्ट्री की भूमि को मुक्त कराए जाने की मांग की गई है जिस पर एसडीएम ने जल्द कार्यवाही कराने का आश्वासन दिया है ।

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