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गुरुवार, 24 नवंबर 2022

विचार प्रवाह : संसार सागर के पार

                         संसार सागर के पार -
भविष्य में सुख की काल्पनिक परिस्थिति की कामना लिए हुए मनुष्य अनेकों तिकड़म रचते हुये लाखों दुख सहता है और जब वह परिस्थिति आती है, तब उसके हाथ खाली हो जाते है और उसे ज्ञात होता है कि अब तक का जीवन तो ऐसे ही निरर्थक निकल गया और जो स्वप्न उसने देखा था, उसके बनाने से वैसा कुछ बना नहीं। 

भगवत्कृपा से कोई कोई जागृत हो जाता है और वह अपने सारे कर्मों को निष्काम भाव से करते हुए भगवान को समर्पित करने लगता है। तब वह काल के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग सतकर्म करने में करते हुए वर्तमान परिस्थितियों में ही आनन्दित हो जाता है। भगवान की लीलाओं को देखकर उसका सदभाव एवं आनन्द नित्य बढ़ता ही रहता है। 

निर्मल मन से सतकर्म करने की इस प्रक्रिया में जब संसार में रहते हुये भी उसके चक्र से बाहर हो वह आनन्दित मनुष्य निर्भय हो जाता है तब उसका जीवन सार्थक हो जाता है। 

शरीर साधन की साधना एवं इसके समुचित उपयोग से वह मनुष्य संसार सागर से पार होने की योग्यता प्राप्त कर लेता है और वह पूर्ण रुप से भगवान का हो जाता है।

ऐसा मनुष्य अनेकों विघ्न बाधाओं व विपरीत परिस्थितियों में विचलित नहीं होता, न ही अनुकूल परिस्थितियों में वह अभिमानी बनता है एवं जब उसका जीवन लोक कल्याण के लिए ही समर्पित हो जाता है तब ऐसा मनुष्य निश्चित ही संसार सागर से पार निकल जाता है। 
विचार लेख - बाबा सचिदानन्द निर्भय 'पधूस'
साभार : अवधेश पांडेय

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