सामान्य तौर पर लगभग पूरे देश मे बुराई पर अच्छाई की विजय के प्रतीक दशहरा पर्व पर या उससे पूर्व रामलीला का मंचन कर दशहरे पर रावण दहन किया जाता है, लेकिन लखनऊ के ग्रामीणांचल इटौंज़ा में रावण के पुतले का दहन पूर्णमासी को किया जाता है।
हालांकि भारी बारिश के संकेतों और रुक रुक कर हो रही बरसात के बीच इटौंज़ा रामलीला मैदान में जगह जगह हो रहे जलभराव व कीचड़ में आज रावण दहन व रामलीला मेला किस प्रकार सम्पन्न होगा यह तो अभी खबर लिखे जाने तक भविष्य के गर्भ में है। लेकिन मौसम के बिगड़े मिजाज से लग रहा है कि इस साल मेले में खास उत्साह नही रहेगा।
इटौंज़ा के प्राचीन रामलीला मेले की खूबसूरती तो देखते ही बनती थी। रामलीला मेले के आसपास व्यवस्थित ढंग से सजी दुकानें व मनोरंजन के साधन मेले में चार चांद लगा देते थे। टिक्की, बताशे, जलेबी से लेकर अन्य फ़ास्ट फूड कार्नर मेलार्थियों के आकर्षण का केंद्र हुआ करते थे। इस मेले में मूंगफली सीजन की शुरुआत गादा मूंगफली से होती थी। रामलीला में भाग लेने वाले स्थानीय कलाकारों का अभिनय अद्वितीय था। खास कर रावण, राम, हनुमान आदि प्रमुख कलाकार तो अपने किरदार को जीवंत कर देते थे। उनके अभिनय से दर्शक मंत्रमुग्ध होकर भावुक हो उठते थे। कभी कभी तो मेला प्रांगण करतल ध्वनि से गुंजायमान हो उठता तो कभी कभी किसी सीन पर दर्शकों में एकाग्रता के साथ खामोशी व सन्नाटा पसर जाता। खैर पूरे इंतजाम से होने वाले रावण दहन में पटाखों का शोर आसपास के क्षेत्र में सुनाई देता था। आज यह सब शायद इंद्र देवता को मंजूर न हो या शाम के समय इंद्रदेव इजाजत दे दें, यह लिखना मुश्किल है। अधिकतर जगह रावण दहन दशहरा के दिन होता है, मगर इटौंज़ा में पूर्णमासी के दिन। आखिर ऐसा क्यों ? यह जिज्ञासा बचपन से थी और क्षेत्र के वरिष्ठजनों से इस विषय पर बातचीत भी की। लेकिन इसका सटीक व तथ्यों की कसौटी पर खरा जवाब आज तक नही मिला। हां तमाम किवदंती जरूर मिली। जिससे पूछा उसने एक नई व्याख्या की। जितने मुंह उतनी बात। उन बातचीत के निचोड़ से कुछ इस प्रकार निकल के आया।
कुछ लोगों का मानना है असल मे रावण की नाभि में भगवान श्री राम ने विजयदशमी के दिन वाण मारा जरूर था और रावण धरा पर गिर गया था। लेकिन रावण का गोलोक गमन शरद पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा से अमृत वर्षा के दौरान अमृतकाल में हुई थी। इससे पूर्व भगवान राम ने अपने भाई अनुज लक्ष्मण को ज्ञान लेने के लिए रावण के पास भेजा था। तमाम बुराइयों व अंहकार के साथ एक दूसरा पहलू यह भी है कि रावण विप्र था, प्रकाण्ड पंडित के साथ वेद व कलाओं में सर्वश्रेष्ठ था।
व्यवसायिक दृष्टिकोण से देखें तो उत्तर भारत मे रामलीला मेला बड़े जोर शोर से मनाया जाता है। हर जगह मेले की अपनी अलग संस्कृति और मान्यता है। जिसे व्यवसायी भव्यता प्रदान करते हैं। लगभग सभी जगह एक साथ मेला होने से मेलार्थी विभक्त हो जाएंगे जिसका सीधा असर व्यवसाय पर भी पड़ेगा। इसलिए दशहरा से शुरू होने वाला मेला अलग अलग, अलग अलग तिथि में सम्पन्न होता है। वही व्यवसायी जिस तिथि में जहां मेला होता है वहां पहुंच कर मेला की शोभा बढ़ाते हैं। कई मेलार्थी व मेला प्रेमी तिथियों के अनुसार मेला पहुंच कर मेले की भव्यता में अपना योगदान देते हैं।
एक किवदंती यह भी है कि बहुत पहले राजाओं का शासन हुआ करता था। सबके अपने स्टेट हुआ करते थे। अतिप्राचीन समय मे महोना स्टेट के एक स्थान पर रामलीला आयोजित कर रावण पुतले का दहन हुआ करता था। फिर वहां इटौंज़ा के तत्कालीन राजा की अनबन हो गयी और इटौंज़ा राजा ने वापस आकर पूर्णमासी के दिन इटौंज़ा में रामलीला मेला व रावण पुतले के दहन की शुरुआत की।
कुलमिलाकर कारण कुछ भी हो लेकिन इटौंज़ा रामलीला मेला की भव्यता व दिव्यता देखते ही बनती है। यहां छोटे बड़े व्यापारियों व रामलीला नाटक में भाग लेने वाले कलाकारों, सामाजिक सरोकारों से जुड़े लोगों का योगदान अनुकरणीय है। जिसपर आसपास व दूर दराज के क्षेत्रों से आकर मेलार्थी चार चांद लगा देते हैं और मेला सफल बनाने में लगे आयोजको का उत्साह बढ़ाते हैं।
उत्कृष्ट लेख
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन के लिए हार्दिक 🙏
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