शब्द साकार हैं | शब्द निराकार भी हैं | शब्द ब्रह्म हैं | शब्द ब्रह्म का विस्तार भी हैं | शब्द अक्रीय हैं | शब्द सृष्टि का सुलभ लोक-व्यवहार भी हैं | धरती से लेकर ब्रह्मांड़ तक केवल शब्दों की ही सत्ता है | शब्दों का अवकाश भी शब्द है ! नि:शब्दता भी शब्दों की ही मुखर अनुगूंज है ! शब्द शाश्वत हैं । प्रकृति के हर अवकाश में शब्द हैं ! उसके हर ब्लैंक में शब्दों की सुलभ हाजिरी है | जहाँ शब्द नहीं, वहाँ चेतना है | और जहाँ शब्द हैं, वहाँ भी चेतना है | शब्द ही चेतना हैं और चेतना ही निःशब्द शब्द हैं | शब्द अह्म-ब्रह्मास्मि हैं ! शब्द अछोर छोर हैं | शब्दों की हाज़िर-नाज़िर से ही समूची कायनात स्फूर्त है | स्वर शब्दों से ही अभिव्यक्त के बलवले हैं | और ध्वनि भी शब्दों से ही गुंजायमान है, नादित है | शब्दों से सुरों का सुरीला संसार है | शब्द भावनाओं के गूंगेपन का मुखर आधार हैं | शब्द मूकता का पड़ाव हैं, और अंतिम विश्राम भी हैं | शब्द मुक़म्मल सम्प्रेषण हैं | शब्द विचारों का सहज संप्रेषण भाव हैं | शब्द धर्म-निरपेक्ष हैं | शब्द गुट-निरपेक्ष हैं | शब्द ब्रह्मा के विस्तार का अनंत विस्तार हैं | शब्द ही मोक्ष का पता हैं, प्रवेशी द्वार हैं ।
अलबत्ता, शब्द नाचीज़ नहीं हैं | शब्द कनीज़ भी नहीं हैं | शब्दों को हुकूम की हवेली पर हमें मुजरा कराने से बचाना चाहिए ! शब्दों को पैसे की हवस में मुजरा करने से रोकना चाहिए | शब्दों को सियासत की देहरी पर माथा टेककर प्रतिबद्धता का दीया जलाने से भी बचाना चाहिए | शब्दों को क़लम की ज़र-ख़रीद रखैल बनने से तो बचाया ही जाना चाहिए | शब्दों को क़लम के सौदे का बिकाऊ माल बनने से भी रोका जाना चाहिए | शब्द क़लम की बाँदी नहीं होते | उनकी पुश्तैनी विरासत भी नहीं होते | शब्द क़लम की फनकारी का नकद व्यावहारिक-मूल्य तो कतई नहीं होते | शब्द सत्य का ईश्वरीय पहरुआ भर होते हैं | वे सच्चाई का संप्रेषित मिठाई फ़ल होते हैं | शब्द मर्म को आहत भी करते हैं और आहत मर्म का स-ह्रदय उपचार भी करते हैं | शब्दों को बरतना क़लमगीर का खुदाई इल्म होता है | शब्दों को बरतते हुए शब्दों को आततायी होने से बचाया ही जाना चाहिए |
भले दौर बड़ा ही जालिम है | भेडिये शेर की बोली बोलकर बहुरुपिया स्वांग धरते हैं | ये भी सच है कि कई क़लमकार कलम का विधर्मी मूल्य पाने की जुगत में भिड़े हैं | वे बोली के बाज़ार में शब्द-हीन होकर नीलाम हो रहे हैं | बाज़ारवाद और पूँजीवाद के इस बिकाऊ दौर में जब सब-कुछ खरीदा-बेचा जा रहा हो, तब भला शब्दों से भी निरपेक्ष आचरण की उम्मीद भला कैसे की जा सकती है ? उनपर भी तो दुनियावी सापेक्ष आचरण का ख़तरा मौजूद ही है | मगर शब्द तो शब्द होते हैं | वे अक्रीय होते हैं | धर्म-शील होते हैं | वे कभी झूठ नहीं बोलते | झूठ उनका डीएनए ही नहीं | भले ही वे अपने निरपेक्षता के सदगुण के चलते अपने क़लमकार मालिक की संप्रेषित भाषा बोलते हैं | मगर शब्द भी अपने बरतानी मालिकों के हाथों यदि अपनी प्रहारकता खोने लगेंगे, तब शब्दों को भी सियासी-विदूषक बनते देर नहीं लगेगी | शब्दों के साथ ये ख़तरे कदम-डर-कदम मौजूद हैं ! ख़तरा यह कि शायद शब्द क़लमकार की अभिव्यक्ति का चेहरा नहीं बल्कि क़लमकार के रंग बदलते चेहरे की अभिव्यक्ति दिखने लगेंगे | क्योंकि शब्द की तो अपनी कोई मालिकी रंगत होती नहीं | वह बरतने वाले के मनोभावों की रंगत में अपनी रंगत का रंग चढ़ा पाते हैं |
शब्द कभी झूठ नहीं बोलते | अलबत्ता, झूठ बोलते शब्द क़लमकारों की नीयत का सच्चा पता अवश्य ही देते हैं !
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