✍️ अनूप सिंह | दैनिक जनजागरण न्यूज़ विशेष लेख
“थोड़ा सेवा–पानी हो जाए…” — यह वाक्य सुनने में विनम्र लगता है, लेकिन सरकारी गलियारों में यह रिश्वत का नया नाम है।
पंजाब के डीआईजी एच.एस. भुल्लर द्वारा इस शब्द का प्रयोग यह दर्शाता है कि अब भ्रष्टाचार सिर्फ अपराध नहीं, बल्कि व्यवस्था की मानसिकता बन चुका है।
आज नागरिकों को सुविधा नहीं, सेवा खरीदनी पड़ती है।
फ़ाइल आगे बढ़ाने से लेकर रिपोर्ट पास कराने और सेवानिवृत्ति लाभ तक — हर जगह “सेवा–पानी” की अदृश्य प्रथा चलती है।
यह प्रथा केवल ईमानदार कर्मचारियों को हाशिए पर नहीं धकेलती, बल्कि जनता के विश्वास को भी तोड़ती है।
“सेवा–पानी” कोई साधारण शब्द नहीं, यह उस सोच का प्रतीक है जिसमें कर्तव्य को कमाई और सेवा को सौदा मान लिया गया है।
जब तक यह सोच नहीं बदलेगी, तब तक सरकारी व्यवस्था से भ्रष्टाचार मिटाना मुश्किल रहेगा।
अब ज़रूरत है — “सेवा–पानी” नहीं, “सेवा–भाव” की।
डिजिटल पारदर्शिता, जनसहभागिता और कड़ी जवाबदेही से ही यह परंपरा बदली जा सकती है।
हर विभाग को स्पष्ट कहना होगा
“हम सेवा देते हैं, पानी नहीं लेते।”
*जन मत का आईना*
रिश्वत चाहे किसी भी नाम से ली जाए, अपराध ही है।
नागरिक अगर “ना” कहना सीख लें, तो “सेवा–पानी” संस्कृति खुद सूख जाएगी।
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