अनूप सिंह, संरक्षक, दैनिक जनजागरण की कलम से...✍️
जिस देश की जनता स्टेडियम के बाहर चीख रही हो,
और उसके नेता स्टेडियम के भीतर ट्रॉफी के साथ पोज़ दे रहे हों,
समझ लीजिए – यह हादसा नहीं, यह सियासी पाप है।
कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु (RCB) की जीत के नाम पर एक ऐसा दृश्य सामने आया, जिसने लोकतंत्र की आत्मा को झकझोर दिया।
मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और उनसे भी आगे बढ़ते हुए, कुर्सी की दौड़ में खुद को “मुख्यमंत्री इन वेटिंग” मान चुके डी.के. शिवकुमार, ट्रॉफी हाथ में लेकर ऐसे मग्न थे जैसे जनता ने नहीं, स्वयं उन्होंने बल्लेबाज़ी करके मैच जिताया हो।
कैमरे चमकते रहे, और जनता मरती रही!
डी.के. शिवकुमार के लिए शायद यह अवसर किसी राज्याभिषेक से कम नहीं था।
हर एंगल से कैमरा चाहिए था। हर ट्रॉफी शॉट में चेहरा चाहिए था।
और इस “संपूर्ण फोटोशूट” के बीच, बाहर भगदड़, लूट, महिलाओं से छेड़छाड़, और आम नागरिकों की मौतें… बस एक अवांछित बिचित्र संयोग बनकर रह गईं।
बड़े गर्व से ट्रॉफी थामे इन नेताओं ने शायद यह भी नहीं पूछा —
“कितनी लाशें बिछीं हैं बाहर?”
“कितनी माएं अपने बच्चों को खोज रही हैं?”
राहुल गांधी की रहस्यमयी चुप्पी
और फिर आते हैं राहुल गांधी।
जो 'मोदी हटाओ अभियान' में इतने व्यस्त हैं कि कर्नाटक की जनता की चीखें उनके इयरप्लग तक नहीं पहुँच पाईं।
जिस नेता को हर मंच पर “Narendra is surrendering” बोलने का शौक है,
क्या वह अब “Karnataka Government is murdering” जैसे शब्दों की भी हिम्मत दिखाएंगे?
राहुल गांधी यदि आज भी खुद को राष्ट्रीय नेता मानते हैं, तो बेंगलुरु की घटना पर मौन उनके नेतृत्व को कलंकित करता है।
क्या आम आदमी अब सिर्फ बंधक है?
क्या यह लोकतंत्र है या कोई राजतंत्र?
जहाँ कार्यक्रम सिर्फ नेताओं और वीआईपी के लिए आयोजित होता है,
और जनता का आना मौत का न्योता बन जाता है।
क्या यह घोषणा नहीं कर देनी चाहिए थी कि –
"यह आयोजन केवल फोटो खिंचवाने के लिए है, आम नागरिक कृपया न आएं, आप हमारे इवेंट की सुरक्षा के लायक नहीं हैं"?
🇮🇳 भारत की गरिमा पर चोट
यह केवल कर्नाटक की घटना नहीं थी।
यह भारत की लोकतांत्रिक छवि पर तगड़ा तमाचा था।
एक ओर विपक्षी नेता पाकिस्तान के पक्ष में भारत की निंदा करते हैं,
और दूसरी ओर, उनके ही मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री अपने राज्य में जनता की लाशों पर सेल्फी लेते हैं।
निष्कर्ष: अब चुप रहना गुनाह है
इस घटना ने साफ कर दिया कि –
"कुर्सी, कैमरा और कप (ट्रॉफी)" के लिए यह नेता कुछ भी कर सकते हैं —
जनता को कुचलना भी और सच्चाई को ढंकना भी।
जनता के वोट से बनी सरकार को जब जनता की जान की परवाह न हो,
तो जनता को भी अब सवाल करना चाहिए —
“हमें भीड़ क्यों कहा जाता है, नागरिक क्यों नहीं समझा जाता?”
यह वक्त है जब हम ये तय करें – हम सिर्फ वोट डालने वाले यंत्र हैं या इस देश के असली मालिक?
वोट देकर जिन्हें सिंहासन दिया,
अब वक्त है उन्हें आईना दिखाने का।
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