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बुधवार, 25 जून 2025

25 जून 1975: जब लोकतंत्र कांपा और बजा अनुशासन डंका

अनूप सिंह, संरक्षक दैनिक जनजागरण, की कलम से...✍️

भारत के इतिहास में कुछ तारीखें ऐसी होती हैं, जो बीतने के बाद भी समय के पन्नों से धुंधली नहीं होतीं। वे बार-बार लौटती हैं, स्मृति के आईने में, विवेक की अदालत में, और पीढ़ियों के विवेचन में।
25 जून 1975 — एक ऐसी ही तारीख थी।

एक ओर यह दिन याद आता है सरकार की तानाशाही और लोकतंत्र की हत्या के लिए,
तो दूसरी ओर, उस अनुशासित सामाजिक व्यवस्था के लिए भी,
जिसका अनुभव इससे पहले इस देश ने कभी नहीं किया था।

पहला पक्ष: अनुशासन का अप्रत्याशित चमत्कार

उस दौर से पहले भारत में अव्यवस्था ही दिनचर्या थी।
रेलें घंटों लेट, दफ्तरों में बाबुओं की मनमानी, दुकानदारों की कालाबाज़ारी, और सरकारी तंत्र की शिथिलता — जनता इन सबकी इतनी अभ्यस्त हो चुकी थी कि सुधार एक कल्पना जैसा लगता था।

लेकिन आपातकाल लागू होते ही...जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने पूरे देश को एक अनिवार्य अनुशासन के पिंजरे में बंद कर दिया हो।

रेलगाड़ियाँ घड़ी की सुइयों से होड़ लेने लगीं।
दफ्तरों में अफ़सर समय से पहले बैठने लगे।
बाबू जिनकी मेज़ पर फाइलें महीने भर पड़ी रहती थीं — अब वे खुद फ़ाइलें उठाकर ले जाने लगे।

पुलिस और प्रशासन सतर्क, चौकन्ना, और हाज़िर।
सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर ड्यूटी पर, और स्कूलों में शिक्षकों की उपस्थिति दर्ज।
लगता था जैसे संपूर्ण शासनतंत्र नींद से जाग गया हो।

दुकानों पर रेट लिस्ट चिपकाई गई — यह अनिवार्य कर दिया गया।
हर दुकानदार को यह नियम मानना ही था कि वह अपनी दुकान पर मूल्य सूची और माप तौल की प्रमाणिकता के प्रमाण पत्र टांगे।

चीनी के दाम स्थिर हो गए थे।
वह चीनी जो पहले कालाबाजारी का शिकार रहती थी,
अब सही दाम पर, सही मात्रा में उपलब्ध थी।

तेल, दाल, अनाज – सब वस्तुएँ नियत दरों पर मिल रही थीं।
जमाखोरी, मुनाफाखोरी और चोरी छुपे बेचने वालों को जेल का भय था।

यह ऐसा समय था जब पुलिस केवल डंडा नहीं चलाती थी,
बल्कि आमजन की सुविधा पर भी ध्यान देती थी।

और सबसे बड़ी बात – गरीब आदमी खुश था।
जिसे न राजनीति से लेना-देना था,
न विरोध-प्रदर्शन से,
उसे पहली बार लगा – सरकार सच में काम कर रही है!

लोगों के मुंह से निकलने लगा –
"डर से ही सही, पर अब तो देश ठीक चल रहा है।"
कई लोग तो कहते – "भैया, अब रामराज आ गया है।"

दूसरा दृश्य: जब लोकतंत्र की सांस घुटने लगी

लेकिन इस रामराज के पीछे क्या कीमत चुकाई गई?

स्वतंत्रता — अभिव्यक्ति की, विचारों की, और असहमति की।

प्रेस की आज़ादी छीन ली गई।
अखबारों को सेंसर किया गया।
कलम पर पहरा और पत्रकारों पर प्रतिबंध।

संसद मौन, न्यायपालिका विवश, और जनता भयभीत।

सिर्फ इतना ही नहीं —
हजारों राजनीतिक कार्यकर्ता बिना मुकदमा चलाए जेलों में ठूंसे गए।

हर वह व्यक्ति जो सरकार की बात से असहमत था,
या जिसने सार्वजनिक मंच पर कोई सवाल पूछ लिया,
वह "देशद्रोही" करार दे दिया गया।

और इस अत्याचार की पराकाष्ठा तब हुई,
जब जबरन नसबंदी का अभियान पूरे देश में चलाया गया।
लोगों की देह पर भी सरकार का नियंत्रण हो गया।

न दलील, न वकील, न अपील —
केवल शासन का डंडा और आदेश!

निष्कर्ष: डर से व्यवस्था या चेतना से सुधार?

तो क्या हम यह मान लें कि व्यवस्था केवल डर से ही सुधारी जा सकती है?

क्या यह आवश्यक है कि हर सुधार लोकतंत्र की बलि लेकर ही किया जाए?

आपातकाल ने यह जरूर दिखा दिया कि सरकार चाह ले तो देश व्यवस्थित हो सकता है।
लेकिन क्या यही सरकार, यही प्रशासन — बिना नागरिक अधिकारों को कुचले —
जनहित में, नैतिकता और पारदर्शिता से यही सब नहीं कर सकता?

क्या हम आज वह अनुशासन, वह समयपालन और वह पारदर्शिता
जनचेतना, शिक्षा और जागरूकता से नहीं ला सकते?

एक उत्तरदायी भविष्य की ओर

25 जून 1975 को हम याद करें —
ना केवल आलोचना के लिए, न प्रशंसा के लिए,
बल्कि इस सीख के लिए कि व्यवस्था और स्वतंत्रता एक-दूसरे के शत्रु नहीं, सहचर हो सकते हैं।

अगर एक भय से पैदा हुई सरकार "रामराज" ला सकती है,
तो एक जागरूक समाज और उत्तरदायी शासन
उससे बेहतर भारत क्यों नहीं बना सकता?

हम एक ऐसा भारत बनाएँ —
जहाँ अनुशासन कर्तव्य से जन्मे,
न कि डर से।

जहाँ व्यवस्था सत्ता का तमाशा न हो,
बल्कि जनहित का प्रतिबिंब हो।

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