लखीमपुर खीरी। वे सपनों में समाजवाद बोते थे। गाँव-गाँव, चौपाल-चौपाल जाकर नारे नहीं, भरोसा गूँजाते थे, हम समाजवाद लाएँगे, सबको हक दिलाएँगे। वे न झुके, न थके। न धूप ने रोका, न बारिश ने। पर आज वही सपा के सच्चे सिपाही, जिन्हें पार्टी की रीढ़ कहा जाता था, बीते पाँच दिनों से जेल की कालकोठरी में हैं धारा 151 के तहत बंद। चार को ज़मानत मिली, पर तीन ( संदीप वर्मा, सुधाकर लाला, रमन मनार ) अब भी न्याय के इंतज़ार में हैं।
हैरत की बात यह नहीं कि उन्हें गिरफ़्तार किया गया। लोकतंत्र में प्रतिरोध अक्सर सज़ा बन जाता है। लेकिन दर्द की बात यह है कि खीरी के वे सांसद, जिनके लिए इन कार्यकर्ताओं ने पसीना नहीं, लहू बहाया, वे अब मौन हैं। न कोई सांत्वना, न कोई संवेदना। क्या यह वही समाजवाद है, जिसके लिए राम मनोहर लोहिया ने सपने देखे थे? क्या यह वही पार्टी है, जिसमें नेता और कार्यकर्ता का रिश्ता 'परिवार' कहलाता था?
सड़क पर खड़ा हर कार्यकर्ता आज पूछ रहा है, "जब हम जेल में थे, तब हमारे अपने कहाँ थे?"
क्या सांसदों की चुप्पी इस बात का संकेत है कि सत्ता की सीढ़ियाँ चढ़ते ही ज़मीन से रिश्ता टूट जाता है? लेकिन आशा अभी मरी नहीं है। खीरी की गलियों में आज भी एक विश्वास गूंज रहा है "हम लड़ेंगे साथी, जब तक साँसें हैं।"
समाजवादी समर्थकों की माँग है अपने सच्चे सिपाहियों के लिए पार्टी को अब बोलना होगा, खड़ा होना होगा, नहीं तो यह चुप्पी कल इतिहास में एक बदनुमा दाग बन जाएगी।
समय है कि नेतृत्व, अपने कंधों पर कार्यकर्ताओं की पीड़ा उठाए। क्योंकि अगर जड़ें सूख गईं, तो कोई भी वृक्ष फल नहीं दे सकता।
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