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शनिवार, 31 मई 2025

'विदेशी दलाल मीडिया': "देशभक्ति की दुकान में बेचते गद्दारी का माल!" कौन पत्रकार है और कौन ‘पेड एजेंट’ ...?

(एक समय सामायिक लेख उन पत्रकारों के नाम, जो कलम की नोक से जहर घोलते हैं)
लेखक • अनूप सिंह, संरक्षक, दैनिक जनजागरण न्यूज (डिजिटल) की कलम से...

ऑपरेशन सिंदूर की सफलता ने पूरे देश का सीना गर्व से चौड़ा कर दिया। देश के जवानों की वीरता और रणनीति ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया कि भारत अब घर में घुसकर मारने वाला राष्ट्र है। लेकिन इसी समय कुछ चेहरे अचानक चौंक पड़े, कुछ कलमें कांपने लगीं और कुछ कैमरे चुपचाप रोने लगे।

नहीं… ये वो लोग नहीं थे जो दुश्मन के देश में थे, ये वो ‘विचारों के सैनिक’ थे जो इसी देश की रोटी खाते हैं, लेकिन भाषा और भावना दुश्मन की बोलते हैं। इन्होंने ऑपरेशन सिंदूर पर घड़ियाली आँसू बहाने शुरू कर दिए। क्यों? क्योंकि इनका “व्यापार” खतरे में पड़ गया है।

कुछ पत्रकारों की कलमें अब कलम नहीं रहीं, डॉलर छापने की मशीन बन चुकी हैं। एक लेख – और 30 लाख रुपए की थैली। एक वीडियो – और 50 लाख की बधाई। और विषय क्या है? "भारत में लोकतंत्र की हत्या", "कश्मीर में कथित अत्याचार", "अल्पसंख्यकों पर कथित हमले"… यानी वही रटी-रटाई स्क्रिप्ट, जिसे लिखकर पाकिस्तानी डोज़ियर में छापा जाता है और यूएन में लहराया जाता है।

"कलम से राष्ट्र नहीं, एजेंडा चलता है"

चरखा दत्त जैसे कुछ पत्रकार, जिन्हें एक समय पर “महान” कहा जाता था, आज अगर एक लेख के बदले 1.5 करोड़ रुपये पा रहे हैं – तो यह पत्रकारिता है या दलाली? क्या ये वही लेख नहीं है जिसमें भारतीय सेना को निशाना बनाया गया? क्या ये वही लेख नहीं जिसे पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र में भारत के खिलाफ प्रस्तुत किया?

और जिस लेख की विषयवस्तु पर कोई वैज्ञानिक शोध नहीं, कोई निष्पक्षता नहीं, केवल भारत विरोधी झूठ की कालिख हो – उस पर इतनी भारी-भरकम धनराशि? क्या यह पत्रकारिता है या देशद्रोह का कारोबार?

"इनके आँसू लोकतंत्र के लिए नहीं, डॉलर के लिए हैं"

जब ऑपरेशन सिंदूर की तस्वीरें आईं, जब दुश्मनों के ठिकाने तबाह हुए, तब ये पत्रकार दुखी हो उठे। इन्हें मानवाधिकार याद आया – लेकिन शहीद जवानों के अधिकारों पर कभी कलम नहीं चली। इन्हें लोकतंत्र याद आया – लेकिन आतंकियों के खिलाफ चल रही कानूनी कार्रवाइयों पर प्रश्नचिह्न लगाने से नहीं चूके।

इनका एजेंडा साफ है – भारत को अंदर से कमजोर करना। और इनका तरीका भी साफ है – झूठ फैलाओ, डर फैलाओ, और डॉलर बटोर लो।

"गोदी मीडिया कहकर राष्ट्रवाद को गाली देना, इनका नया फैशन है"

जो पत्रकार सरकार की अच्छी नीतियों की सराहना करे – वह ‘गोदी मीडिया’ है।
जो पत्रकार आतंकियों की भाषा बोले – वह ‘स्वतंत्र पत्रकार’ है।
जो सैनिकों की वीरता दिखाए – वह पक्षपाती है।
और जो भारत को बदनाम करे – वह अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार का हकदार है!

वाह री पत्रकारिता, तेरी भी क्या तासीर है,
जिसने कलम बेची डॉलर में और आत्मा गिरवी रख दी तहरीर में!

"जनता से एक सीधा सवाल"

क्या ऐसे पत्रकारों को हम बर्दाश्त करें जो विदेशों के इशारे पर देश में विष घोलते हैं?
क्या हमें ऐसी रिपोर्टिंग चाहिए जो देश की जड़ों को खोखला करती हो?
क्या राष्ट्रवाद सिर्फ ‘एक पक्ष’ हो गया है?

"असली देशद्रोही वो नहीं जो सवाल पूछता है, बल्कि वो है जो देश के नाम पर झूठ बेचता है। जो देश की असलियत को नहीं, उसकी बदनामी को अंतरराष्ट्रीय अखबारों तक पहुँचाता है – सिर्फ इसलिए क्योंकि वहाँ डॉलर बरसते हैं और यहाँ देश जलता है।" "बंदूक से गोली चले तो खबर बनती है, लेकिन जब कलम से राष्ट्रविरोधी ज़हर निकले – तो उसे 'पत्रकारिता' कह दिया जाता है। यही असली धोखा है, यही असली गद्दारी।"

"अंतिम शब्द – कलम को फिर से राष्ट्रधर्म निभाना होगा"

देश में कई ऐसे पत्रकार हैं जो आज भी निष्ठा और सच्चाई से देश की सेवा कर रहे हैं – लेकिन वे सुर्खियों में नहीं आते, क्योंकि उनके लेखों पर डॉलर नहीं, संस्कार की स्याही लगती है। अब समय है कि 

देश की जनता पहचान करे – कौन पत्रकार है और कौन ‘पेड एजेंट’।" राष्ट्रवाद कोई अपराध नहीं – यह वह आस्था है जो देश को जोड़ती है और जो राष्ट्रवाद को गोदी मीडिया कहें – उन्हें 'विदेशी दलाल मीडिया' की उपाधि देना गलत नहीं होगा।

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